वक्त अजीब पिंजरा है
चाहने, न चाहने के बीच की कड़ियाँ
ये छोटी , बड़ी और घन्टे की सुइयाँ
ये दीवारों पे दिखती वृत्त- आयत सी घड़ियाँ
खुद के लिए बनाया ये वक्ती पिंजरा
रुकता तो हम हीं चलाते
फिर चलते खुद हीं , भटके से, भटकाते
चल पड़ने, सब छोड़ते से, आगे बढ़ने में
इतनी घुटन?…इतनी उदासी?
कहीं ऐसा तो नहीं, कि…
“समय” कुछ और हीं शय हो?
और हम निरे मूरख से भाग रहे
घड़ी के भीतर बेसिरे रस्ते पे
और चोटिल होते अब -तब
सिर पे पड़ती घण्टे की मार
और जब तब एड़ियों के ठीक पास
कभी हल्का-गहरा चीरा लगाती
निकलती रहती हैं ये मिनट और सेकेंड की सुइयाँ
चाहते कुछ तो लिपट पड़ते इन काँटों से
कि रुके, ,थमे या धीरे चले
न चाहते कुछ तो पथराये से घिसटते , कोसते
रोते आँखे सूखी कर कर
अनमने से या जब तब नासूर फटने सा सहते
मर्मान्तक चीखें उठती आत्मा तक से
कि बीतती हीं नहीं जैसे अब इक इक घड़ी
याद करने से भी आता नहीं याद
कि रहे होंगे हम हीं समय से भी बलवान
पता नहीं पर कैसे भी पता था
हम हैं उस ईश्वर की संतान
जानते रहे होंगे समय के सिरे से बतियाना
कहना, मनवा लेना अपनी
हाँ…ऐसा हीं हुआ होगा
कभी शिव सी मनोदशा में
ना समझे होंगे समय की चाल
हमसे स्वीकृत करवाया होगा
अनवरत चलना, सुख दुख, सृजन संहार से परे
चलते रहना आगे हीं बस।
तभी से …सब भस्म करता असुर सा..
ठगी गयी तीसरी आँख भी, तांडव तक भी..
नहीं जान पाती कोई छठी इन्द्री भी
कि कैसा परिहास होगा जीवन का
या कौन सा निष्ठुर भ्रम टूटेगा साँस टूटने तक
तो भी मोहा गया आखिर वो भस्मासुर
समय के किसी क्षण भर में हीं गयी मति मारी
ऐसे अंतहीन क्षण- क्षण में
भावों के हीं भक्षण में
लिप्त रही हैं ये …छोटी बड़ी और घण्टे की सुइयाँ
सतत निरन्तर भक्षण में गिरती रही है जूठन स्मृतियों की.. इतनी सारी …कि सृष्टि दे न सकी इतना स्थान…
मानमर्दित हुई ये स्वीकारती कि..
इतना सब कुछ छुप सकता है केवल
इक मानव-हृदय में
कुछ भी तो न था वो , जिसे हारना हीं था
कि कोई समय सा और हो तो कहो…
भूत, वर्तमान, भविष्य की तीन हाहाकारी हथेलियाँ
हरदम पीछे पड़ी, धू-धू कर जलाती, राख उड़ाती
कोई नहीं अड़ा आज तक इस पथ के बीच
एक हीं तो शर्त है बस “एको अहम द्वितीयो नास्ति”
के जब था देखता अर्जुन सत्य सारे
रोका गया था समय कुछ देर को
असंख्य मुख में चांद तारे ग्रह नक्षत्र अंतरिक्ष
ब्रम्हांड हीं सब समाए, कई योनियाँ भोगते
काल कवलित होते प्राण सारे, न कोई किसी का कुछ
न था, न है, न रहेगा….मिला यही ज्ञान…
कि सब है बस समय चक्र के अधीन
समय रोक के समय की महिमा
और कह दिया ..सब मुझमे ही तो समाय
यानी तमाचा वही बस हाथ दूसरा
कोई बताए ईश्वर ने समय को रोका था
या समय ने ईश्वर को…
सुनो, मुझे नहीं पता मोक्ष क्या है
क्यूँकि पता हीं नहीं चलता कि जीवन क्या है
सच तो ये है कि मुझे कुछ नहीं पता…हाँ सच…
कुछ भी तो नहीं पता…
पर कुछ है..और ये जो भी है…”मोक्ष सा”
पुकारता है समय के उसी सिरे से
जो मिलता नहीं किसी को, कैसे टूटे ये वक्ती पिंजड़ा!
एक अनुभूति है केवल जो वास्तविक है
शांत करती है हर रोम, हरती है मारक सी व्याकुलता
जब चाहते हों कुछ प्राणों से बढ़कर , ठीक उसी क्षण में
उसे मुक्त हो जाने देने की भी चाह जगे, प्राण गँवाकर भी
तुम देखना अपनी आनन्दित -अंतस-दृष्टि से
समय के पिंजड़े में तड़ाक से पड़ती हैं दरारें
टूटता है हर पिंजड़ा बस तुम्हारे लिए
समय की दीवार के पार, जो जान सकोगे
वो ये , कि….जो सबसे सरल -सहज है
वास्तव में वही है पर्याय …सृष्टि के गूढ़ रहस्यों का ।
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