वक़्त बेवक्त
वक़्त-बेवक्त
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अपने मन की एक छोटी सी कोठरी में
मैंने रखा था
एक पिटारा यादों का
खोलता था उसे वक़्त-बेवक्त
मरोड़ता था खुद को,
निचोड़ता था
अपनी आत्मा को
दुःख की विष भरी बूंदें टपकती थीं
बहुत दर्द होता था
फिर भी खोलता था उस पिटारे को
वक़्त-बेवक्त
जिसने दुःख को पूरी तरह
खुद में छिपा रखा था
होती थी अनवरत पीड़ा
फिर भी खोलता था पिटारे को
वक़्त-बेवक्त
दुखते थे ज़ख्म, कराहता था मैं
चिल्लाकर भी रोता था अकेले में
फिर भी खोलता था पिटारे को
वक़्त-बेवक्त
कुछ लोगों के वजूद इसमें छिपे थे
जिन्हें देखकर दुखता था दिल
तड़पती थी भावनाएँ
फिर भी खोलता था
पिटारे को वक़्त-बेवक्त।
जब थक गयी आत्मा
लगा दिया ताला मैंने
उस पिटारे पर
खो गयी चाभी भी
अब खोल नहीं पाता
पर अब भी देख लेता हूँ
उस पिटारे को
वक़्त-बेवक्त
जिसने हमारी यादों को संजोकर रखा है
हमारा दर्द,हमारी पीड़ा,हमारे ज़ख्म
सब ताले के पीछे बंद हैं
फिर भी तड़पती आँखों से
देख ही लेता हूँ
पुरानी यादों को
अपने दर्द को
दर्द से तड़पते हुए
वक़्त-बेवक्त।
–अनिल कुमार मिश्र,राँची,झारखंड