वंदना
दुर्मिल सवैया
करता नित वंदन शारद का,
पद पंकज रोज पखार रहा।
न गुमान रहे अभिमान रहे,
धन दौलत आज निसार रहा।
यह जीवन सार बने बगिया,
उर को दिन रात निखार रहा।
अब मात जरा सर हाथ रखो,
सुत पांव विभूति निहार रहा।।
पंकज शर्मा “परिंदा”