“वंदगी में गंदगी क्यों”
“वंदगी में गंदगी क्यों”
जिंदगी और वंदगी में गंदगी किसी की भी हो , कैसी भी हो, उसे स्वीकार करना उसको प्रसरय देना मानव हित में न आज तक हुआ है और न ही कभी होगा। चंद स्वार्थ चित्त मन, जब भी हमारी हथेली में चाँद दिखाते है हम अपना सर्वस्व समर्पण कर देते है। इतना तो विवेक होना ही चाहिए कि चाँद हाथों संग नहीं तारों संग दीप्तिमान होता है। आँखें खोलकर चलना ही होगा अन्यथा धुँए के गुबार में अंधी दौड़ लगाने से किसको कौन रोक पाया है, कुविचारी अपनी रोटी सेंकते ही रहेंगे और श्रद्धा मरती रहेगी। जघन्य अपराध है दुखद पल है यह विनाशी अंध विश्वास जो खुद तो आलीशान जिंदगी जीता है और हमें यानी श्रद्धा और भावना को सिसकने पर मजबूर कर देता है। गुरु के नाम पर, धर्म के नाम पर, रीति रिवाज के नाम पर धोखा धड़ी, यूँ तो नहीं हो जाती, हमारी संवेदना, भावना और लालच को बरगलाया जाता है और फिर मानव भीड़ का दोहन होता है। यहीं भीड़ पाखंड की वह नीव है जिसपर बड़े से बड़े फरेबी भवन उग रहे हैं, काश अब भी हम इस घृणित मंशा को समझ पाते तो, हमारे आराध्य राम और रहीम के नाम पर अनाचार और अत्याचार का कुकर्मी बाग न खिलता…….अब हमें अपने अपने घरों के कुलीन गुरु, जन्म देय माँ-बाप, अपने पारिवारिक संस्कार- संस्कृति, रीति-रिवाज और पूर्वजों की प्रथा-परंपरा का एवं रिश्ते-नातों से पुर्ववत जुड़ना चाहिए जिनसे याद-कदा उदासीन होकर भाड़े के गुरुओं के जबड़ों जा बैठे हैं और अपने घर- मंदिर की पूजा-पाठ बंद करके, पाखंडी गुम्बजों में आरती गा रहे हैं मानों हम उसी पाखंडी सिंघासन के पुस्तैनी उत्तराधिकारी हैं। सुबह का भुला शाम को घर वापस आये, इसी उम्मीद में…….जय हिंद……!
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी