लड़की होना
जन्म के साथ ही
सिलसिला दुव्र्यवहार का
हो जाता है शुरू।
पहले तो आत्मा कुंठित करने का
होता है अभ्यास।
फिर उघारा जाता है
देह में मेरे लड़की का
श्वास–प्रश्वास।
शैशव में ज्यादा घंटों तक
रोना पड़ता है मुझे।
और कम घंटों तक मिलता है मुझे
मानवीय दूध।
मेरे बित्ते भर के वस्त्रा भी होते हैं
किस्म में घटिया।
फिक्र कम ही रहता है
मेरे रोने या रूठने का।
बहल जाना और फुसल जाना
होती है मेरी नियति।
मैं समझती हूँ सब पर‚
जान पाती हूँ इसकी वजह तब
जबकि
मैं बनती हूँ बेटी की माँ।
मैं माँ बनकर भी
लगती हूँ तीव्रता से चाहने बेटा।
क्योंकि लगती हूँ समझने
हर सीमाएँ।
बाल्यावस्था ही में
हो जाती हूँ जैसे युवा
जब नग्न रहने के बाल्यकाल की उम्र में
लगती हूँ छिपाने‚हो जाताी हूँ अभ्यस्त
गुप्ताँगों को।
जितनी हो सके जल्द कर देते हैं
लोग मुझे पराया
माँ–बाप भी।
मेरा लड़की होना
हो जाता है अत्यन्त भारी।
इतनी कमजोर मैं नहीं
मैं तो सड़कों पर चाहती हूँ भागना।
वन में शिकार पर निकलना।
कोई टोके तो बहस करना।
कोई ललकारे तो हथियार उठाना।
मैं तो चाहती हूँ प्रतिकूलताओं से जूझना।
पर‚ – – – – – – – – –
यह बहस कि
दैहिक संरचनाओं से कर दी गयी हूँ सीमित
गलत है।
अभिमन्यु नहीं हारा था?
वह तो दैहिक संरचनाओं से नहीं था सीमित ॐ
विजय और पराजय की पहचान क्या है?
मैं किसी भी युद्ध में पराजित नहीं हूँ।
पराजय के लम्बे डण्डे पर भी लगती है
मेरी विजय पताका।
अरि नहीं मैं नारी हूँ क्योैकि ‚
नारी अर्थात जीवन से सम्बद्ध।
मेरे देह को छूकर
‘पराजित कर दिया’ के मद में
चूर लोगोॐसुनो‚
यह समाज की व्यव्स्था की है पराजय।
अब मैं निकल पड़ूँगी
समाज के पूजा गृह में
करूँगी अपनी प्राण प्रतिष्ठा ।
सीटीयों की आवाजों से
बनूँगी द्रुतगामी नहीं
बल्कि करूँगाी प्रतिकार।
सामाजिक व नैतिक प्रतिकार।
इस सामाजिक व्यवस्था में
इतनी नकारात्मकता है मेरे लिए कि
हमें अपने आरक्षण के लिए
कहना पड़ता है ‘हाँ’।
जब सामाजिक व्यवस्था की नकारात्मकता को
आरक्षण‚
तो मेरी नकारात्मकता के सर्वांगीण पहलू
पर हो आरक्षण।
मेरे अस्तित्व को देह
और देह को वस्तु
और वस्तु का बाजार लगना ही है।
फिर वह चाहे हो मेरी जीविका के लिए
या मुझे संरक्षण देने की वसूली।
मेरे देह को प्रदत्त यह संरक्षण
मेरा निर्बाध शोषण है।
मैं नहीं जाऊँ भूल अतः
कह दूँ अभी ही कि
मेरे सिवा सभी करना चाहते रहे हैं
मेरी हत्या
यह प्रार्थना करके कि
मेरे कोख में पल रही है लड़की
तो मेरा कोख जाये गिर‚हे प्रभूॐ
मरे माँ को गालियों की तरह यह कहकर कि
तेरा कोख जने सिर्फ लड़कियाँ।
मुझे बराबरी पर लाकर खड़ा करने की कवायद
है आखिर क्यों?
मेरा होना कुछ वैयक्तिक है नहीं
यह तो सामाजिक जरूरत है।
समझते क्यों नहीं
इतनी सीधी व छोटी सी बातॐ
और यदि दबंग बनकर अपने ही घर में
कर लेती हूँ बेटे के हिस्से सा अपना वजूद
तो मोड़ लेते हैं सभी
प्यार के मेरे हिस्से से मुँह।
सारा कुछ मेरे विवाहोपरान्त हो जाता है साफ।
चाहे वह मेरे जनक या जननी ही क्यों न हो।
मेरा भाई बलात्कार करके
नवाजा जाता है मर्दानेपन से।
मैं मर्दों को दुत्कार कर भी
कलमुँही।
———————————————