✍️लौटा हि दूँगा…✍️
✍️लौटा हि दूँगा…✍️
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अग़र धोख़ा हुवा है तेरी ज़मी पे तो
तुम क्यूँ मेरा ही आसमान छिनते हो
जो देखे वो ख़्वाब ही खुदगर्ज़ थे तो
तुम क्यूँ मेरा फिर अरमान छिनते हो
मैं तो ख़ामोशी से ही बात करता हूँ
तुम क्यूँ मेरी नर्म जुबान छिनते हो
इस मिट्टी में दफ़न है मेरा भी कोई
तुम क्यूँ मुझसे ये जहाँन छिनते हो
हुकूमत बदली तो नोट भी बदलते है
कागज़ का क्यूँ गंज-दान छिनते हो?
एक कर्ज है ज़मी का उतारना बाकी..
लौटा हि दूँगा तुम क्यूँ जान छिनते हो
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©✍️”अशांत”शेखर✍️
31/05/2022