लो फिर आ गया आत्महत्याओं का मौसम
अभी दसवीं तथा बारहवीं का परीक्षा परिणाम आये एक दिन भी नहीं हुए हैं. हमें अपने आस पास और साथ ही दूर दूर सभी जगह से एक साथ, एक ही तरह की खबरें सुनाई दे रही हैं. किसी छात्र ने परीक्षा में फेल होने के कारण फाँसी लगा ली या किसी छात्रा ने परीक्षा में कम नंबर आने के कारण जहर खा लिया. अगर हम कोई लोकल पेपर उठायें तो इस तरह की खबरों से पेपर भरा मिलेगा. पिछले कुछ सालों का आत्महत्याओं का डाटा देखने पर पता चलता है कि ज्यादातर छात्रों ने आत्महत्या मई से लेकर जुलाई के महीनों में ही की हैं. क्यूँ? क्यूंकि इन्हीं महीनों में परीक्षाओं के परिणाम घोषित होते हैं.
मध्य प्रदेश में बोर्ड परीक्षाओं के परिणाम आने के बाद उसी दिन एक के बाद एक 12 बच्चों ने आत्महत्या कर ली. कुछ बच्चों ने महज इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उन्हें 90% मार्क्स मिलने की उम्मीद थी. इन 12 बच्चों में से 2 सगे भाई-बहन भी हैं जिन्होंने 12 और 10 वीं की परीक्षा में असफल होने के कारण अपनी जान दे दी.
आखिर क्यूँ बच्चे इतने अवसाद में हैं कि उन्हें भगवान कि दी हुई इस जिन्दंगी से भी प्यार नहीं रहा. या यूँ कहे कि हम परिवार वालों की आकांक्षायें इतनी बढ गई हैं कि हम उन पर जरुरत से ज्यादा बोझ डाल रहे हैं, जिसे बच्चे सहन नहीं कर पा रहे हैं और टूट के बिखर रहे हैं.
आज सभी अभिभावक अपने बच्चों को ग्रेडिंग की अंधी दौड़ में हाँक रहे हैं. 90% अंक लाने पर भी बच्चों पर और ज्यादा अंक लाने के दबाव डालते हैं. सभी अभिभावक यहीं चाहते हैं कि उनका बेटा-बेटी डॉक्टर या इंजिनियर बने (अगर सभी डॉक्टर बन जायेंगे तो कौन किसका इलाज़ करेगा?). प्रतियोगिता की दौड़ में हम इतने अंधे हो गए हैं कि बस हम सभी यहीं चाहते हैं कि हमारा बच्चा ही सभी परीक्षाओं में प्रथम आये. हम ये भी नहीं सोचते कि हमारे बच्चे क्या चाहते हैं, उसकी क्षमता क्या हैं या उसकी रूचि किसमें हैं. हम तो बस यहीं जानते हैं कि हमें उन्हें क्या बनाना है. ये अच्छी बात है कि हम उनका मार्गदर्शन करें, पर ये भी ठीक नहीं कि हम उन पर अपना निर्णय थोपे.
जब भी मैं किसी छात्र के आत्महत्या कि खबर पढ़ती हूँ तो मेरी आँखें भीग जाती हैं और मुझे श्रुति की याद आ जाती है. श्रुति, मेरी सबसे अच्छी थी. बहुत ही अच्छी कलाकार. पेंटिंग इतना अच्छा करती थी कि बड़े-बड़े कलाकार भी उसके आगे फेल थे. बिना सीखे ही वो सिंथेसाइज़र पर कोई भी गाना बस सुनकर ही हुबहू बजा लेती थी. पर उसके डॉक्टर मम्मी- पापा को इससे कोई मतलब नहीं था. वो तो अपनी इकलौती बेटी को बस डॉक्टर बनाना चाहते थे. और सालों पहले वो अपने मम्मी-पापा के सपनों को पूरा न कर पाने के बोझ तले दबकर इस दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह गई.
इस तरह की घटनाओं को बढ़ावा देने में आजकल की कामकाजी एकल परिवार व्यवस्था भी काफी हद तक जिम्मेदार है. पहले हम सभी संयुक्त परिवार में रहते थे. दादा-दादी, चाचा-चाची का प्यार हमें मिलता रहता था. पर आजकल एकल परिवार का चलन बढ़ने से बच्चे मानसिक रूप से उतने मजबूत नहीं बन पाते हैं, उनमें सहनशीलता भी बहुत कम रह गई है. छोटी छोटी बात पर बच्चे अपने आप को टूटा हुआ महसूस करते हैं, हारा हुआ समझते हैं. आजकल की शिक्षा व्यवस्था भी इसके लिए उतनी ही जिम्मेदार है.
अब वो समय आ गया है कि हर माँ-बाप को बैठकर ये सोचना चाहिए कहीं हम बच्चों पर अपने सपने थोप तो नहीं रहे हैं और उन्हें आत्महत्या की इस राह में धकेल तो नहीं रहे हैं. हर बच्चे की अलग-अलग क्षमता होती है, अलग रूचि होती है. आप पहले देखें, समझे कि आपके बच्चे की रूचि किसमें है. उसे बढ़ावा दें और फिर देखें, जरुर आपका बच्चा उस क्षेत्र में अपना नाम कमाएगा और आपका नाम रोशन करेगा. नम्बरों की इस अंधी दौड़ से बाहर आएं.
लोधी डॉ. आशा ‘अदिति’
बैतूल (म. प्र.)