लोभ
लोभ समस्त बुराईयों का आधार है।इसके समस्त दृष्टांत हमारे धार्मिक ग्रंथों में उपस्थित हैं;इन उदाहरणों द्वारा मैनें यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि लोभ के कितने कष्टकारी और भयंकर परिणाम हो सकते हैं।आप पढ़िये और उचित टिप्पणी कीजिये::—
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लोभ
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हमारे शास्त्र हमें लोभ,मोह,धन,संपति और अहंकार से दूर रहने की बात करते हैं।इन बातों को सिद्ध करने को न जाने कितने पुराणों और ग्रंथों का सहारा लेकर तर्क दिये जाते हैं कि इनके त्याग से जीवन में सहजता आ जाती है और व्यक्ति को जीवन में आनंद और फिर मोक्ष की प्राप्ति होती है।
यदि हम अपने महाग्रंथों को पढ़ें तो यह बात किसी सीमा तक सही सिद्ध होती है।सबसे पहले हम रामायण के उदाहरण लेते हैं।सत्ता का मोह सबसे पहले कैकेयी की दासी मंथरा के मन में उभरा:उसने अपनी कुंठा को कैकेयी के द्वारा पूरा करना चाहा ।यह घटना “घर का भेदी:आयोध्या ढाये” की लोकोक्ति का सूत्रपात करती है।उसने कैकेयी के कान भरे और राम को चौदह वर्ष का बनवास भेज दिया। उसके बाद भरत ने त्याग दिखाते हुये चौदह वर्ष तक श्री राम की खड़ाऊं से अपना राज्य चलाया। परंतु रावण ने बिल्कुल इसके विपरीत किया।उसने कुबेर द्वारा बनाई सोने की लंका को छल बल से कुबेर से छीन लिया। और फिर लंका पर अधिकार जमाते हुये और कई राज्यों पर अधिकार जमा लिया।पर इसका अंत क्या हुआ? लंका जल गई रावण मारा गया । और साथ में मारे गये सारे भाई नाती और पोते।मरवाया किसने सगे भाई ने।राम को भी सुख क्या मिला?सीता को वनवास।
दूसरा उदाहरण है महाभारत से। महाभारत में भी मन की कुंठा है जिसने पांडवों से छल कर सत्ता हथिया ली।और अंत में कौरवों के सारे भाई मारे गये। धृतराष्ट्र ने आँख न होते हुये भी सब तरह की धूर्तता दिखाई और दुर्योधन (सुयोधन) को शकुनी के साथ मिल कर युधिष्ठिर को हरा दिया और सता हथिया ली। अंत में सारे कौरव मारे गये और पांडव वन की और। दोनों के हाथ कुछ नहीं लगा।
यह स्थिति आज भी जारी है।लोभ में पड़ कर लोग सता और संपत्ति के लिये कुछ भी करने को तैयार हैं। यह तो है कि हम केवल शीघ्र प्राप्त होने वाले कर्म के बारे में सोचते हैं परंतु उपरोक्त दो उदाहरणों से यह भूल जाते हैं कर्म का फल ईश्वर यहीं दे देते हैं।बुरे कर्म का तो बुरा होता ही है पर जब तक परिणाम आता है तब तक बुराइयों का अंबार लगा चुके होते हैं।बुराइयों के परिणाम देखते हुये भी हम इनको करते हैं। अच्छाइयों के अच्छे परिणाम नजर नहीं आते है पर अच्छे कर्म की प्रेरणा हमें सब महान व्यक्तियों से लेनी चाहिये पर दोनों अच्छाई और बुराई साथ साथ चलते हैं।यह दोनों धूप छांव की तरह से हैं।एक व्यक्ति में दोनों ही गुण स्वभावत: होते हैं।इसलिये समय समय पर ये उभर कर आ जाते हैं।इसमें मैनें दो निषिद्ध काम,ईर्ष्या और क्रोध को जरा इसलिये छोड़ दिये क्योंकि ये व्यक्तिगत रूप से कम या ज्यादा हर किसी में विद्यमान रहते हैं। इनका परिणाम कभी कभी आता है लेकिन जब भी आते हैं तो भयंकर ही होते हैं।हर कार्य करने से पहले स्वविवेक से काम लें ।
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राजेश’ललित’
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