लोग हमको सही नहीं कहते
ग़ज़ल (बह्र – खफीफ़ मुसद्दस मख़बून)
लोग हमको सही नहीं कहते।
इसलिए तो खरी नहीं कहते।।
जो चुभे तंज़ सा किसी को तो।
फिर उसे दिल्लगी नहीं कहते।।
काम औरों के जो नहीं आती।
हम इसे जिंदगी नहीं कहते।।
खिदमते-ख़ल्क़ भी इबादत है।
सिर्फ़ सजदों को ही नहीं कहते।।
बूंद दो बूंद से ही मिट जाये।
फिर इसे तिश्नगी नहीं कहते।।
सिर्फ चश्मे शराब पीते हैं।
हम इसे मयकशी नहीं कहते।।
काफ़िया है न बह्र जिसमें “अनीश”।
फिर उसे शायरी नहीं कहते।।
—–अनीश शाह