लोग पथ से भटक रहे हैं
ये कैसा समय आ गया है
जब लोग भटक रहे हैं अपने पथ से,
मर्यादा लांघ रहे हैं
संस्कार सभ्यता से दूर हो रहे हैं।
मान मर्यादा की हदें पार कर रहे हैं
मां बाप का अपमान कर रहे हैं
छोटे बड़े का न लिहाज कर रहे हैं,
आधुनिकता की अंधी दौड़ में
सारी हदें पार कर रहे हैं,
शर्मोहया की हदें पार कर रहे हैं।
अपनी धर्म संस्कृति को ठुकरा रहे हैं
पश्चिमी सभ्यता के गुलाम बन रहे हैं
पूजा पाठ धार्मिक संस्कार को छोड़
पाश्चात्य संस्कृति का गुणगान कर रहे हैं।
नियम धर्म संस्कार का मजाक उड़ा रहे हैं
अपने पुरखों को गंवार बता रहे हैं
माता पिता परिवार से दूर हो रहे हैं
अपनी बीवी के साथ आजाद जीवन जी रहे हैं
अपने बीवी बच्चों को ही परिवार समझ रहे हैं।
मां बाप अकेलेपन का दंश झेल रहे हैं
समय से पहले दुनिया छोड़ रहे हैं
या वृद्धाश्रम में जीवन के अंतिम दिन गिन रहे हैं।
कौन कहता है कि लोग अपने पथसे भटक रहे हैं?
वास्तव में लोग बड़े समझदार हो गये हैं
अपनी औलादों को भविष्य की राह दिखा रहे हैं
अपने हाथों ही अपनी राह दुश्वार कर रहे हैं
तब लगता है कि अब तो लोग जानबूझकर
अपने सुगम पथ से भटक रहे हैं
अपने कल के अंधेरे की नींव आज ही रख रहे हैं
विकास की नई गाथा आधुनिक ढंग से लिख रहे हैं,
जिसे हम आप पर से भटकना बता रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश