लोक तन्त्र और आतंकवाद
हर रोज,हर वक्त।
रेडियो,दूरदर्शन,और समाचार पत्र।
में,
पक्ष,एवं विपक्ष,एक स्वर एक मत ।
देते हैं,यह बयान,
लोकतन्त्र में,हत्या और आतंकवाद का,
नहीं है कोइ स्थान।
और अगली ही सुबह,
आता है यह समाचार,कुछ आतंकवादियों ने,
ले ली कुछ मासूमों की जान।
आखिर क्यों होता है,ऐसा,
जब भी नेता गण ऐसा बयान देते हैं,
तो उसका उल्टा ही असर होता है।
शायद नहीं,पर इमानदारी से भी नहीं।
वर्ना क्यों, जब भी यह नेतागण,
महंगाई,बेरोजगारी,भ्रष्टाचार,भाई भतीजावाद,
को मिटाने कि बात करते हैं ,
तो यह दिन दुनी रात चौगुनी बढ जाती है।
और जब हत्या,मासुम हत्या,निर्षन्स हत्यापर
नियत्रण कि बात होती है तो,
यह बे लगाम घोडे कि तरह दौड जाती है।
कुछ सिर फिरे लौगों कि बन्दुकों कि गोलियां
अनियत्रंत हो जाती हैं।
आखिर क्यों होता है,यह सब❗
आखिर क्यों कल तक जिन्हे लोग पुजते थे,
उन्हे आज हम,किसीवाद के साथ जोड कर
तिरषकृत कर देते हैं,,
क्या फर्क रह गया है इन विचारो में,
हर कोइ अपने अपने वाद का नारा लेकर डटा है,
अप्रासांगिक हो गये हैं अन्य वाद,
रह गया है अब आतकंवाद,
युं तो ये आतंकवादी स्वयम् भी बेमौत ही मरते हैं,
किन्तु कइ घरों के चिराग बुझा कर,
कइ माताओं कि गोद सुनी कर,
कइ बहनो की मांग धोकर,
इनका कोइ धर्म नही,
इनका कोइ ईमान नहीं
इनका कोइ मजहब नहीं,
खुनी जनून के सिवा,
इनका अपना भी कोइ नहीं,कोइ नहीं।