‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ के 6 यथार्थवादी ‘लोकगीत’
।। कपड़ा लै गये चोर ।।—1.
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ध्यान गजानन कौ करूं गौरी पुत्र महान
जगदम्बा मां सरस्वती देउ ज्ञान को दान।
जा आजादी की गंगा नहाबे जनता मन हरषायी है।।
पहली डुबकी दई घाट पै कपड़ा लै गये चोर
नंगे बदन है गयी ठाड़ी वृथा मचावै शोर
चोर पै कब कन्ट्रोल लगाई। या आजादी….
टोसा देखि-देखि हरषाये रामराज के पंडा
टोसा कूं हू खाय दक्षिणा मांगि रहे मुस्तंडा
पण्डा ते कछु पार न पायी है। जा आजादी….
भूखी नंगी फिरै पार पै लई महाजन घेर
एक रुपइया में दयौ आटौ आधा सेर
टेर-लुटवे की पड़ी सुनायी है। जा आजादी….
रामचरन कहि एसी वाले अरे सुनो मक्कार
गोदामों में अन्न भरि लयो, जनता की लाचार
हारते जाते लोग लुगाई है। जा आजादी……..
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+लोककवि रामचरन गुप्त
|| नागों की फिरे जमात ||—-2.
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भगवान आपकी दुनियां में अंधेर दिखाई दे
गुन्डे बेईमानों का हथफेर दिखायी दे ।
घूमते-फिरते डाकू-चोर, नाश कर देंगे रिश्वतखोर
जगह-जगह अबलाओं की टेर दिखायी दे।
नागों की फिरे जमात, देश को डसते ये दिन-रात
भाई से भाई का अब ना मेल दिखायी दे।
देश की यूं होती बर्बादी, धन के बल कुमेल हैं शादी
बाजारों में हाड-मांस का ढेर दिखायी दे।
घासलेट खा-खाकर भाई, दुनिया की बुद्धि बौरायी
रामचरन अब हर मति भीतर फेर दिखायी दे।
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+लोककवि रामचरन गुप्त
|| पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं ||—-3.
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ऐरे चवन्नी भी जब नाय अपने पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
किससे किस्से कहूं कहौ मैं अपनी किस्मत फूटी के
गाजर खाय-खाय दिन काटे भये न दर्शन रोटी के
एरे बिना किताबन के कैसे हो छटवीं पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
पढि़-लिखि कें बेटा बन जावै बाबू बहुरें दिन काले
लोहौ कबहू पीटवौ छूटै, मिटैं हथेली के छाले
एरे काऊ तरियां ते बुझे जिय मन की प्यास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
रामचरन करि खेत-मजूरी ताले कूटत दिन बीते
घोर गरीबी और अभावों में अपने पल-छिन बीते
एरे जा महंगाई ने अधरन को लूटौ हास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
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+लोककवि रामचरन गुप्त
|| जनियो मत ऐसौ लाला ||—-4.
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जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा।
पूत पातकी पतित पाप पै पाप प्रसारै
कुल की कोमल बेलि काटि पल-भर में डारै
कुल करै कलंकित काला
जनियो मत ऐसौ लाला।
जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा ||
सुत हो संयमशील साहसी
अति विद्वान विवेकशील सत सरल सज्ञानी
रामचरन हो दिव्यदर्श दुखहंता ज्ञानी
रहै सत्य के साथ, करै रवि तुल्य उजाला
जनियो तू ऐसौ लाला।
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+लोककवि रामचरन गुप्त
।। किदवई और पटेल रोवते।।—–5.
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जुल्म तैने ढाय दियो एरै नत्थू भइया
अस्सी साल बाप बूढ़े कौ बनि गयौ प्राण लिबइया।
भारत की फुलवार पेड़-शांति को उड़ौ पपइया
नजर न पड़े बाग कौ माली, सूनी पड़ी मढ़ैया।
आज लंगोटी पीली वालौ, बिन हथियार लड़ैया
अरिदल मर्दन कष्ट निवारण भारत मान रखैया।
आज न रहयौ हिन्द केसरी नैया को खिवैया
रामचरन रह गये अकेले अब न सलाह दिवैया
किदवई और पटेल रोवते, रहयौ न धीर बधइया |
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+लोककवि रामचरन गुप्त
|| जा की छुक-छुक ||—-6.
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एरे आयी-आयी है जिय नये दौर की रेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।
जा में डिब्बे लगे भये हैं भारत की आजादी के
भगतसिंह की कछू क्रान्ति के कछू बापू की खादी के
एरे जाकी पटरी हैं ज्यों नेहरू और पटेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जा की सीटी लगती जैसे इन्कलाब के नारे हों
जा की छुक-छुक जैसे धड़के फिर से हृदय हमारे हों
एरे जा के ऊपर तू सब श्रद्धा-सुमन उड़ेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जाकौ गार्ड वही बनि पावै जाने कोड़े खाये हों
ऐसौ क्रातिवीर हो जाते सब गोरे थर्राये हों
एरे जाने काटी हो अंगरेजन की हर जेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जामें खेल न खेलै कोई भइया रिश्वतखोरी के
बिना टिकट के, लूट-अपहरण या ठगई के-चोरी के
एरे रामचरन! छलिया के डाली जाय नकेल,
मुसाफिर जामें बैठि चलौ ||
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+लोककवि रामचरन गुप्त