/////लोकतंत्र/////
हमने बनाया लोकतंत्र इतना महान है
प्रज्ञा जहां न पा सकी अपना स्थान है
बगुले भी चल रहें तो हंसों की चाल है
ये लोकतंत्र का बड़ा कितना कमाल है
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कैद हो गया ये लोकतंत्र अब किताब में
मचा कुर्सियों के वास्ते भेड़िया धसान है
हो गयी जब से यहां घोषणा चुनावों की
हो गया तब से शुरू तो कीचड़ नहान है
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लगा लोकतंत्र बिकने अब नई दूकान में
सभी तो दिख रहे हैं व्यस्त मोल-भाव में
कुछ इस तरह लगते गंभीर हाव-भाव में
सबकुछ खरीद लेंगे वो अबकी चुनाव में
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कुछ के लिए सीमित हुए ये ऊंचे मचान है
फिर कहां से ये हुआ कि अवसर समान है
कहां तलक गिरा कोई न निश्चित मुकाम है
फिर ऐसे लोकतंत्र पर क्यों इतना गुमान है
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कुछ लोगों तक गया सिमट ये लोकतंत्र है
कई पीढ़ियों तलक ये सफलता का मंत्र है
जिन्हें मिला न कुछ उन्हें लगता षड़यंत्र है
उनके लिए यही तो मर- मिटने का वक्त है
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रहा फल-फूल खूब तो यहां परिवारवाद है
ये परिभाषा समाजवाद की तो निर्विवाद है
करता लोकतंत्र पूरा उनका अधूरा ख्वाब है
गया मिल हर सदस्य को सत्ता का स्वाद है
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बोले विरूद्ध देश के घूमते वही आजाद हैं
वो कर रहें फिर किस आजादी की मांग हैं
जो करते रहे इस देश का गहरा अपमान है
इस लोकतंत्र में उन्हीं का हो रहा सम्मान है
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इस लोकतंत्र का ये बड़ा सबसे उपहास है
कुछ ही तो होते खुश रहते बाकी उदास हैं
भारी बढ़ रही खटासें रही घटती मिठास है
सब नेता हुए प्रफुल्लित ये जनता हताश है
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यहां क्यों गए बिगड़ हर किसी के बोल हैं
लोकतंत्र दिख रहा क्या बच्चों का खेल है
थोड़ी-बहुत ही नहीं काली पूरी ही दाल है
होते गए वो मालामाल गए बन मिसाल है
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– रामचन्द्र दीक्षित ‘अशोक ‘