लोकतंत्र
अर्जी लिए खड़ा है बुधिया,
दरवाजे पर खाली पेट.
राजा जी कुर्सी पर बैठे,
घुमा रहे हैं पेपरवेट.
कहने को तो लोक तंत्र है,
मगर लोक को जगह कहाँ.
मंतर सारे पास तंत्र के,
लोक भटकता यहाँ-वहाँ.
रोज दक्षिणा के बढ़ते हैं,
सुरसा के मुँह जैसे रेट.
राजकुँवर जी की मर्जी है,
टोपी पहनें या पगड़ी.
सारी परजा बाँट रखी है,
कुछ पिछड़ी है कुछ अगड़ी.
बारी-बारी से करते हैं,
मिल जुल कर सबका आखेट.
साइड में हो जाना प्यारे,
जब वो निकलें बाजू से.
आलू प्याज अगर मँहगे हों,
काम चलाना काजू से.
कच्छा बंडी तुम्हें बहुत है,
उनको आवश्यक जाकेट.
गठबंधन की गाँठ न टूटे,
नवसिखियों को सिखा रहे.
जिनके पास न धरती उनको,
स्वप्न गगन के दिखा रहे.
लोक छुहारा हुआ सूख कर,
हुआ तंत्र का दुगुना वेट.