लोकतंत्र की आड़ में
व्यंग्य
लोकतंत्र की आड़ में
****************
आजकल की राजनीति का
अंदाज बड़ा निराला है
सत्य की दुहाई देने वालों में
जाने कितनों का मन काला है,
सत्ता के लिए वे इतना नीचे गिर गये हैं,
नख से शिखर तक अपने काले कारनामों पर
बड़ी बेशर्मी से खुद को गंगा में धुले बता रहे हैं।
ये कैसी राजनीति, कैसा इरादा है
हिंसा की आग धधक रही है
जनता हिंसा का शिकार हो रही है
लूटपाट का नृत्य जारी है,
आशंकाओं के घने बादल डेरा जमाये हैं
भगवान राम की शोभा यात्राओं और उनके भक्तों पर
अप्रत्याशित हमले हो रहे हैं
एक वर्ग विशेष के धर्म स्थल
आतंक फैलाने के अड्डा बन रहे हैं
सुनियोजित साजिश के तहत उनकी छतों पर
पहले से ही ईंट पत्थर इकट्ठा कर लिया जाते हैं,
फिर अपने कथित आकाओं की शह पर
एक धर्म पर नापाक हमले किए जाते हैं
और नीरो रोजा इफ्तार में मस्त हैं
बेशर्मी से बेफिक्र मुस्कुरा रहे हैं।
एक और कुटिल राजनीति भी आज कल हो रही है
चिट भी मेरी पट भी मेरी का खेल भी खेला जारहा है,
क्षेत्र विशेष में जाने से एक वर्ग को रोका जा रहा है
बांटने की पृष्ठभूमि को मजबूत किया जा रहा है,
अल्पसंख्यक बहुसंख्यक का खेल खेला जा रहा है
कुर्सी और सत्ता की खातिर खुद को
बेशर्मी से नंगा तक किया जा रहा
बड़े इत्मीनान से लोकतंत्र का
खुल्लम खुल्ला उपहास उड़ाया जा रहा
भाई को भाई से लड़ाया जा रहा
हिंदू मुसलमान को अपने अपने खांचों में
बड़े करीने से फिट किया जा रहा है
स्वार्थ की राजनीति का गंदा खेल
स्वार्थी तत्वों द्वारा आजकल खेला जा रहा है
लोकतंत्र को आड़ में देश को कमजोर करने का
खुल्लम खुल्ला खेल हो रहा है।
लोकतंत्र खुद पर शर्मिन्दा होकर
बेबसी के आँसू पी रहा है,
शायद हमसे कुछ कहना चाहता है
या हमें आइना दिखा रहा है,
जो भी हो अपना लोकतंत्र
शर्मसार तो हो ही रहा है।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
© मौलिक स्वरचित