लोककवि रामचरन गुप्त के रसिया और भजन
++कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का विगत भारत-पाक युद्ध पर एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। कशमीर न मिले किसी को ।।
अय्यूब काटत रंग है अमरीका के संग है
काश्मीर ना मिलै किसी को ये भारत का अंग है।
भारत भू ऊपर हम तो खूं की नदी बहा देंगे
काट-काट सर पाकिस्तानी रण के बीच गिरा देंगे
उठि-उठि होगी जंग है… काश्मीर ना मिले…..
मिलकर चाउफ एन लाई के कंजरकोट दबाया था
छोड़ छोड़कर भाजे रण से बिस्तर बगल दबाया था
भई बटालियन भंग है… काश्मीर न मिलै…
सरगोदा बर्की के ऊपर भूल गये चतुराई थे
तौबा तौबा करि के भागे देखे नहीं पिछाई थे
अब भी करि दें तंग है…काश्मीर ना मिलै….|
+ कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक ‘मल्हार’…..
सावन मांगै खूं अंग्रेज को जी
एजी लेउ कर मैं तुम तलवार।
गोरे न मानें लूटें मेरे देश कूं जी
एजी जिय निकले सब मक्कार।
डायर मारौ बहिना भइया भगत ने जी
एरी ऐसे भइया पै आवै बस प्यार।
रामचरन गाऔ अब ऐसे गीत रे
एरे जिनमें नागन की हो फुंकार।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘मल्हार ’
।। लडि़ रहे वीर ।।
सावन आयौ, लायौ हमला चीन कौ जी
एजी सीमा पै लडि़ रहे वीर।
हारि न जावें, न भागें रण छोडि़ के जी
एजी वीरन कूं बध्इयो ध्ीर।
बादल छाये कारे कारे तौप के जी
एजी दुर्गन्धें भरी है समीर।
रामचरन कूँ कायर मति जानियो रे
ऐरे तोकू मारें तकि-तकि तीर।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। झूला लेउ डार ।।
सावन आयौ, न आये मनमोहना जी
एजी बिन कान्हा, झूला को झुलाय?
ऐसौ निर्माही न देखो हमने देश में जी
एजी जाकू ब्रज की सुध हू न आय।
कारै बदरा सौ कान्हाजी कौ प्रेम जी
एजी जो नेह कौ जल न गिराय।
रामचरन रहि रूंआसी रानी राधिका जी
एजी वंशी की धुन को सुनाय?
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। छायौ अंधियार।।
सावन सूनौ नेहरू बिन है गयौ जी
एजी कीकर-सी लगत बहार।
बीच भंवर में छोड़ी नैया देश की जी
ऐजी दुश्मन की चलत कटार।
झूला को झुलाये आजादी कौ बहिन री
एजी गये नेहरू गये स्वर्ग सिधार।
रामचरन कौ बहिना मेरी मन दुखी जी
एजी चहुंतरफा छायौ अंधियार।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ की एक चर्चित ‘मल्हार ’
कारे-कारे बदरा छाये छुआछूत के जी
एजी आऔ हिलमिल झूला लेउ डार।
कोई नहिं ऊंचौ नीचौ नहिं कोई है जी
एजी हम सब हैं एक समान।
झूला झूले संग संग छोडि़ भेदभाव कूं जी
एजी अब सब कूं लम्बे झोटा देउ।
सावन समता कौ आये मेरे देश में जी
एजी रामचरन कौ नाचे मन-मोर।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। मैं विनती करूं मुरारी ।।
ओ अतिंम समय मुरारी, तुम रखना याद हमारी।।
पुतली फिर जायें आंखों की
जब प्राण कंठ में बोले
व्याकुल हो जब जीवन की
ये डगमग नैया डोले
तब टेरूं मैं गिरधारी, तुम रखना याद हमारी।
यम के दूत पकड़ने मुझको
जिस पल माधव आयें
प्राण मेरे घबरायें
यम भी भारी त्रास दिखायें
मैं विनती करूं तुम्हारी, तुम रखना याद हमारी।
तब आकर घनश्याम मुझे
तुम सूरत जरा दखाना
मुझ जैसी पापिन को तब
तुम करुणा हस्त बढ़ाना
मैं जोहूं वाट तिहारी, तुम रखना याद हमारी।
क्या तुम महापातकिन कूं
अब दर्शन देने आओगे
मोहन क्या विश्वास रखूं
तुम अब दौड़े आओगे
मै हूं हतभागिन भारी, तुम रखना याद हमारी।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
कृष्ण की सुदामाजी से होनी आज बात है
पहली मुलाकात है जी पहली मुलाकात है।
लखकर सुदामा को बनवारी रोये
नैनों के जल से पग उनके घोये
प्रेम में विभोर हुए पुलकित अति गात है।
बोले फिर कान्हा- ये तो बताओ
भाभी ने भेजा है क्या क्या दिखाओ
माधव की बात सुन विप्र संकुचात है।
चावल की खींची पुटरिया मुरारी
तंदुल फिर खावत हैं खुश हो के भारी
रामचरन तब अति हरषात है।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। मति गुमान में रहना ।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
गोकुल कूं तू छोडि कंस के घर काहे कूं जावै
लौटि कंस की नगरी ते तू काली पीली आवै
तेरी फोडूंगो गगरिया, डालूँ मैं रंग या ही ठाँव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
मलूँ गुलाल अबीर मोहिनी मानि हमारा कहना
कोधी कामी क्रूर कंस के मति गुमान में रहना
लेलूं बाऊ की खबरिया, डालूँ मैं रंग या ही ठाँव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
ओ मृगनैनी गूँथे बैनी चली कहाँ सिंगार किये
कंचन काया वारी प्यारी मतवारी मदहोश हिये
तेरी रोकि कें डगरिया डालूं मैं रंग या ही ठांव री।।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
मधुवन में मन लगै न तैरो भावै कंस नगरिया
रामचरन इतराय रही तू काहे बोल गुजरिया
लेले हाथ पिचकरिया, डालूँ मैं रंग या ही ठाँव री।
होली खेलि री गुजरिया डालूं में रंग या ही ठांव री।।
+ लोककवि रामचरन गुप्त
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। लज्जा हाथ तुम्हारे ।।
द्रोपदि हो दुखित पुकारे,
अब आओ द्वारिका प्यारे।|
केश पकड़ दुःशाहसन स्वामी बीच सभा में लाया
मोकूँ रह्यौ उघारी, मन में तनिक नहीं शरमाया
पांडव सब हिम्मत हारे,
अब लज्जा हाथ तुम्हारे।
होनी के चक्कर में फंसि के होय आज अनहोनी
भीष्म द्रोणाचार्य विदुर ने साध रखी है मौनी
बैठे सब गरदन डारे,
इन मुख लग गये तारे।
द्रोपदि हो दुखित पुकारे,
अब आओ द्वारिका प्यारे।|
शकुनी और करण-दुर्योंधन हंसि हंसि पीटत तारी
नतमस्तक होकर बैठे है अर्जुन से बलधारी
मणि बिन विषियर कारे,
विवश भूमि फन मारे।
द्रोपदि हो दुखित पुकारे,
अब आओ द्वारिका प्यारे।|
पांचों पति के होते मेरी लाज जाय गोपाला
रामचरन अब रक्षा मेरी करना प्रभु कृपाला
संकट हैं मुझ पर भारे,
मोकूं लूटें हत्यारे।
द्रोपदि हो दुखित पुकारे,
अब आओ द्वारिका प्यारे।|
++कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
लक्ष्य तुम्हारे सामने लेउ धनुष कूँ तान।
युद्ध भूमि में युद्ध ही लड़ना नेक विधान।
धीर तुम धारौ निज मन।
क्या दुःशासन क्या दुर्योधन
मानवता-ममता के दुश्मन
अर्जुन सारे हैं।
उर करुणा नहिं काऊ
को फिर का कौ चाचा-ताऊ
ये रिश्ते घरबार बिकाऊ
अर्जुन सारे हैं।
रामचरन की मानौ
जल्दी धनुष वाण कूं तानौ
अर्जुन खड़े युद्ध में जानो
शत्रु तुम्हारे हैं।
+ कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। रामचरन हिय दुख अति भारी।।
खायौ विषधर कारे नै, दै रह्यौ झाग रे
कब कौ तैने बदलौ लीनौ बनकर के नाग रे।
फन फैलायौ आज, हाथ से उड़ौ जाय मेरौ तोता रे
दुखियारी कूं और दुक्ख दै नींद चैन की सोता रे
रुठि गयौ करतार हमारौ फूटि गयौ भाग रे।
तन ढकने को नहीं वस्त्र हैं बनता कोई काम नहीं
कैसी उल्टी दशा बन गयी रहयौ हमारो धाम नहीं
छाती के सम्मुख मेरौ लाला बनि गयौ आग रे।
पिया अछूत की करी चाकरी राजपाट सब छूटौ है
विधिना नै कैसौ करि दीनौ हाय नसीबा फूटौ है
तक ढकने को वस्त्र नहीं लागौ कैसौ दाग रे।
लेकर लाल चली जब तारा फिर मरघट में रोय परी
रामचरन हिय दुख अति भारी आयी कैसी अशुभ घरी
रोती है तारा जल्दी से लाला मेरे जाग रे।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’–
मीठी-मीठी प्यारी-प्यारी बाजी रे मुरलिया
सुन मुरली की तान बावरी बृज की भयीं गुजरिया।
तजि कें कामधाम सब दौड़ी-दौड़ी आयीं रे
मनमोहन नटनागर की छवि देखि-देखि मुस्कायीं रे
सुध-बुध खोय गयी सब गोपी देखि-देखि सांवरिया।।
सुन-सुन टीस उठै हियरा में अमृत-सौ रस घोलै रे
मुरली मीठौ-मीठौ मोहन के अधरन पै बोलै रे
अति मस्तानी राधा रानी तन की भूल खबरिया।
रामचरन कहें वंशी की धुन हम भी सुनने जाएंगे
वंशीवारे मनमोहन के दर्शन कर हरषाएंगे
गिरधर की छवि देखि छलकती नैनन की गगरिया।।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। तुमको रहे पुकार ।।
एक लाख गउअन के ग्वाला कहां गये कृष्णमुरार
आ हम सजनी ढूढेंगे जमुना के पार।
गोकुल गोधन वृन्दावन को छोड़ गये
हमसे कान्हा क्यूं कर नाता तोड़ गये
गउ माता सब रुदन मचा में रोवें सब नर नार।
सिसकत तड़पत रोबत डोलें नर नारी
सूने जीवन नन्द के कीने गिरधारी
बैठि गये अकू्र के रथ में तनक न करी अबार।
ललिता और विसाखा के मन ज्वाला है
भागे भक्त छोड़कर कंठी माला है
रामचरन कहें कान्हा ने सब छोड़े ग्वाल गंवार।
[कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’]
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। कपड़ा लै गये चोर ।।
ध्यान गजानन कौ करूं गौरी पुत्र महान
जगदम्बा मां सरस्वती देउ ज्ञान को दान।
जा आजादी की गंगा नहाबे जनता मन हरषायी है।।
पहली डुबकी दई घाट पै कपड़ा लै गये चोर
नंगे बदन है गयी ठाड़ी वृथा मचावै शोर
चोर पै कब कन्ट्रोल लगाई। या आजादी….
टोसा देखि-देखि हरषाये रामराज के पंडा
टोसा कूं हू खाय दक्षिणा मांगि रहे मुस्तंडा
पण्डा ते कछु पार न पायी है। जा आजादी….
भूखी नंगी फिरै पार पै लई महाजन घेर
एक रुपइया में दयौ आटौ आधा सेर
टेर-लुटवे की पड़ी सुनायी है। जा आजादी….
रामचरन कहि एसी वाले अरे सुनो मक्कार
गोदामों में अन्न भरि लयो, जनता की लाचार
हारते जाते लोग लुगाई है। जा आजादी……..
+|| कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’ ||
भगवान आपकी दुनियां में अंधेर दिखाई दे
गुन्डे बेईमानों का हथफेर दिखायी दे ।
घूमते-फिरते डाकू-चोर, नाश कर देंगे रिश्वतखोर
जगह-जगह अबलाओं की टेर दिखायी दे।
नागों की फिरे जमात, देश को डसते ये दिन-रात
भाई से भाई का अब ना मेल दिखायी दे।
देश की यूं होती बर्बादी, धन के बल कुमेल हैं शादी
बाजारों में हाड-मांस का ढेर दिखायी दे।
घासलेट खा-खाकर भाई, दुनिया की बुद्धि बौरायी
रामचरन अब हर मति भीतर फेर दिखायी दे।
+स्मृतिशेष पिताश्री ‘लोककवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’…
ऐरे चवन्नी भी जब नाय अपने पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
किससे किस्से कहूं कहौ मैं अपनी किस्मत फूटी के
गाजर खाय-खाय दिन काटे भये न दर्शन रोटी के
एरे बिना किताबन के कैसे हो छटवीं पास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
पढि़-लिखि कें बेटा बन जावै बाबू बहुरें दिन काले
लोहौ कबहू पीटवौ छूटै, मिटैं हथेली के छाले
एरे काऊ तरियां ते बुझे जिय मन की प्यास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
रामचरन करि खेत-मजूरी ताले कूटत दिन बीते
घोर गरीबी और अभावों में अपने पल-छिन बीते
एरे जा महंगाई ने अधरन को लूटौ हास, पढ़ाऊँ कैसे छोरा कूं?
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’…………………
जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा।
पूत पातकी पतित पाप पै पाप प्रसारै
कुल की कोमल बेलि काटि पल-भर में डारै
कुल करै कलंकित काला
जनियो मत ऐसौ लाला।
जननी जनियो तो जनियो ऐसी पूत, ए दानी हो या हो सूरमा ||
सुत हो संयमशील साहसी
अति विद्वान विवेकशील सत सरल सज्ञानी
रामचरन हो दिव्यदर्श दुखहंता ज्ञानी
रहै सत्य के साथ, करै रवि तुल्य उजाला
जनियो तू ऐसौ लाला।
|| ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ ||
||जिकड़ी भजन||
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ’
।। दीनन पति दीन दयाला ।।
;जिला अलीगढ़ के बेरनी गांव के फूलडोल [ग्रामीण कवि सम्मेलन] के लिए लोक कवि रामचरन गुप्त द्वारा लाई करते हुए [खेत काटते हुए] रचा गया एक ऐसा जिकड़ी भजन जो फूलडोल में आयी 36 मंडलियों के 36 कवियों के मध्य गाया गया और अकाट्य भी रहा। इसी भजन पर प्रथम पुरस्कार भी मिला। दुर्भाग्यवश यही कवि की अन्तिम कविता भी बनकर रह गयी।
कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ‘
।। दीनन पति दीन दयाला ।।
मेरी तरनी कूं तारौ तारनहार ऐ फंसि गयी भव सागर भंवर में।।
मोहन मदन मुकुन्द महेश्वर मोक्ष मुरारी
आदि अजित असुरारि अनामय अनघ अघारी
अजर अमर अखिलेश
सत्य सच्चिदानंद स्वयंभू शिवशंकर शेष सुरेश
व्यापक विष्णु विशुद्ध विश्वम्भर वरुण विधाता
नारायण नव नित्य निरंजन नट निर्माता
|| ए दीनन पति दीन दयाला।
कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ’
।। निरखत नीर नयन नरसी के।।
भूषण भरि भंडार ‘भक्त-भय भंजन’ भरने भात चले
सुरपति सारथ साज-साज सजि सब सुरपुर से साथ चले
सो गावत ग्रहिणी गीत गांव की ‘गहि ग्रह कूं गज पाला’
|| ए दीनन पति दीन दयाला।
कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ’
।। पंडित परम पुनीत प्रेम के ।।
दुर्बल दशा दीनता देखी दुखित द्वारिकाधीश भये
दारुण दुःख दुःसहता दुर्दिन दलन दयालू द्रवित भले
सो सत्य सनेही संग सुदामा के श्री श्याम सुपाला
ए दीनन पति दीन दयाला।
कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। पांचाली पट पकरि प्रसारौ ।।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ’
दुष्ट दुःशासन द्रुयोधन दुख द्रोपद को दीने भारे
महारथी महाभारत में भरवाय महीप मही डारे
सो पंथ प्रदर्शक प्रिय पारथ के पंड-पुत्र प्रण पाला
ए दीनन पति दीन दयाला।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘जिकड़ी भजन ’—-
श्रोता समझ लो पूछ लो गहि ग्रन्थ कर में लीजिए
परिभाष कर मम भजन कौ उत्तर सही दे दीजिए
बतलाइये कितने हैं श्रेणी गुणा करो श्रीमान
आकर सभापति के निकट दर्शाइये गुणवान
है कितने भाव गिनाओ, मम प्रश्न तनिक सुलझाओ
कवि रामचरन हर्षाते, गुरु-चरनन शीश नबाते
मंडल ने वाद्य बजाया, डोरी शर्मा ने गाया।
सो करियो कृपा कृपानिधि कान्हा कमलाकंत कृपाला
ए दीनन पति दीन दयाला।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
भक्तों की बात प्रभु आपकी ही बात है
आपके ही हाथ मेरी लाज दिन रात है।
होकर दुखित द्रोपदी जब पुकारी
करतार कर तार दीया सब तारी
दुष्ट दल देख दृष्य कांपत हर गात है।
नरसी भगत से प्रेम था पुराना
आकर लुटाया सब आपने खजाना
चाकर बने और भरौ जाय भात है।
गज हित ग्राह को जल में संहारा
उसको बचाया तुम, जिसने पुकारा
कुंजर उबारा बात जग विख्यात है।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। वियोगी ही रहेंगे ।।
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे
आज से दो प्रेमयोगी बस वियोगी ही रहेंगे।
आयेगा मधुमास फिर भी छायेंगी श्यामल घटाएं
तुम नहीं हो साथ अपनी बात बिछुड़ें मन कहेंगे।
दूर हम मजबूर होंगे अब नयन से या मिलन से
इस व्यथा को इस कथा को हाय रे हम तुम सहेंगे
ध्यान रखना मीत मेरे नेह के बंधन न टूटें
हरिचरन तुम हो जो साथी रामचरन हम भी रहेंगे।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। जीवन के दिन ।।
घड़ी-घड़ी नित घड़ी देखते काट रहा हूं जीवन के दिन
क्या सांसों को ढोते-ढोते ही बीतेंगे जीवन के दिन।
कभी जागते स्वप्न देखते रातें तो कट जाती हैं
पर कैसे पूरे हो पायेंगे मेरे ये जीवन के दिन।
गाज गिरे पर जगे चेतना प्राणहीन इस मन पाहन में
किसी तरह तो प्राणवान हों मेरे ये जीवन के दिन।
अब आंखों से दीवारों का होता है हर रोज सामना
भटक रहे हैं आज अंधेरे में मेरे ये जीवन के दिन।
हाय न पूरी हुयी कामना कुछ न हुआ भू गर्भ न फूटा
सुलग रहे ज्वालामुखि-से अब तक ये जीवन के दिन।
बाती बनकर जले कभी यह धुनी रुई-सी मधुर कल्पना
रामचरन उज्जवल प्रकाश दें तम में ये जीवन के दिन।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। चुनरिया मेरी रंग डारी ।।
ऐरे होली खेली रे कान्हा ने मेरे संग चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
पिचकारी लयी हाथ साथ में ग्वालन की टोली आयी
गालन मलै गुलाल बोलतौ हौले-से ‘होली आयी’
एरे कान्हा कुंजन में भिगोवै अंग-अंग चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
जिय गोवधर््न गिरवरधरी गैल-गैल पै खड़ौ मिलै
कबहु चढ़ै कदम्ब की डारन कबहु अटारी चढ़ौ मिलै
एरे नाचु दिखावै रे बजाबै कबहू चंग, चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
कबहु मारै कीच कबहु जि सब के टेसू-पफूल मलै
होली खेलै कम जिय ज्यादा अंखियन कूं मटकाय मिलै
एरे रामचरन संग में पी आयौ कान्हा भंग,चुनरिया मेरी रंगि डारी।।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। किदवई और पटेल रोवते।।
जुल्म तैने ढाय दियो एरै नत्थू भइया
अस्सी साल बाप बूढ़े कौ बनि गयौ प्राण लिबइया।
भारत की फुलवार पेड़-शांति को उड़ौ पपइया
नजर न पड़े बाग कौ माली, सूनी पड़ी मढ़ैया।
आज लंगोटी पीली वालौ, बिन हथियार लड़ैया
अरिदल मर्दन कष्ट निवारण भारत मान रखैया।
आज न रहयौ हिन्द केसरी नैया को खिवैया
रामचरन रह गये अकेले अब न सलाह दिवैया
किदवई और पटेल रोवते, रहयौ न धीर बध्इया।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। करै न इज्जत कोय ।।
मैं सखि निर्धन का भयी करे न इज्जत कोय
बुरी नजर से देखतौ हर कोई अब मोय।
|| ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ ||
कैसौ देश निगोरा
तकै मेरी अंगिया कौ डोरा
मोते कहत तनक से छोरा
चल री कुंजन में।
|| ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ ||
हम का जानें होरी
पास गुलाल अबीर न रोरी
आयी निकट न खुशी निगोरी
अपने जीवन में।
|| ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ ||
दुख की लाद गठरिया
अब तो दुल्लर भयी कमरिया
रामचरन चुकि गयी उमरिया
बस संघर्षन में।
|| ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ ||
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
27 फ़रवरी ….भारतीय स्वतंत्रता के महानायक चंद्रशेखर आजाद की पुण्यतिथि पर श्रद्धावन्दन !! कोटिशः नमन !!!
।।शेखर वीर बड़ा लासानी है||
शेखर वीर बड़ा लासानी है
अंग्रेजों से लडूं युद्ध की ठानी है।
निशाना जिस पर साधा , वही पर लोक सिधारा
सोच रहे अंगरेज आज तो मुंह की खानी है।
न देखे पीछे आगे, दनादन गोली दागे
लाशें बिछी जिधर भी उसने पिस्टल तानी है।
गोलियां कईं लगी पर, चेतना साथ न छोड़ी
मान रहे अंगरेज वीर यह बड़ा गुमानी है।
बची जब अन्तिम गोली, दाग ली अपने ऊपर
रामचरन ‘आजाद’ रहें वीरों की वानी है।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। रामचरन चरनों में ।।
जग के स्वामी अन्तर्यामी भेंट करूं क्या तेरी।
इस जग में हम ऐसे विचरें जैसे योगी जोगी
शरण तिहारी हम हैं प्रभुजी भक्ति-रस के रोगी
धन सम्पत्ति वैभव से विरत दृष्टि है मेरी।
जग के स्वामी अन्तर्यामी भी करूं क्या तेरी
जो धन-यौवन अपना मानें वे हैं भूला सारे
तुम बिन हाय सहाय न मेरे देख्यौ बहुत विचारे
तुम तक आते-आते मिलती किरणें धवल घनेरी
जग के स्वामी अन्तर्यामी भेंट करूं क्या तेरी।
अपना तो तन धन मन सब कुछ प्रभु रहा तुम्हारा
जब चाहे तब इसको लेना नहिं कछु जोर हमारा
रामचरन चरणों में अर्पित लेउ भक्ति बिन देरी
जग के स्वामी अन्तर्यामी भेंट करूं क्या तेरी।
+ कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। चक्रव्यूह दरम्यान।।
बंसी बारे मोहना नंदनदन गोपाल
मधुसूदन माधव सुनौ विनती मम नंदलाल।
आकर कृष्ण मुरारी,
नैया करि देउ पार हमारी
मीरा-गणिका तुमने तारी,
कीर पड़ावत में।
चक्रव्यूह दरम्यान,
राखे कौरवदल के मान
अर्जुन कौ हरि लीनौ ज्ञान
तीर चढ़ावत में।
वस्त्र-पहाड़ लगायौ,
कौरवदल कछु समझि न पायौ
हारी भुजा अंत नहिं आयौ
चीर बढ़ावत में।
भारई की सुन टेर,
गज-घंटा झट दीनौ गेर
रामचरन प्रभु करी न देर,
वीर अड़ावत में।
[कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’ ]
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
दुश्मन तेरे रक्त से हमें मिटानी प्यास
अब भी हैं कितने यहां सुन सुखदेव सुभाष।
सबके नयन सितारे
भगत सिंह से राजदुलारे
भारत में जब तक हैं प्यारे
अरि कूं छरि दइयें।
भरी भूमि वीरन से
डरपावै मति जंजीरन से
तेरी छाती को तीरन से
छलनी करि दइयें।
अगर युद्ध की ठानी
कहते रामचरन ऐलानी
दाल जैसौ तोकूं अभिमानी
पल में दरि दइयें।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। डटि-डटि कें।।
पल भर में दे तोड़ हम दुश्मन के विषदंत
रहे दुष्ट को तेग हम, और मित्र को संत।
[लोक कवि रामचरन गुप्त ]
अरि के काटें कान
हम भारत के वीर जवान
न इतनौ बोदौ बैरी जान
अड़ें हम डटि-डटि कें।
+लोककवि रामचरन गुप्त
हर सीना फौलाद
दुश्मन रखियो इतनी याद
मारौ हमने हर जल्लाद
लडें हम डटि-डटि कें।
+लोककवि रामचरन गुप्त
अरे पाक ओ चीन
भूमी का लै जायगौ छीन
युद्ध की गौरव-कथा कमीन
गढ़ें हम डटि-डटि कें।
+लोककवि रामचरन गुप्त
रामचरन कूं मान
हमारी ताकत कूं पहचान
फतह के जीवन-भर सोपान
चढ़ें हम डटि-डटि कें।
+लोककवि रामचरन गुप्त
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
हम बच्चे मन के सच्चे हैं, रण में नहिं शीश झुकायेंगे
हम तूफानों से खेलेंगे,चट्टानों से टकरायेंगे।
वीर सुभाष भगत जिस आजादी को लेकर आये थे
उस आजादी की खातिर हम अपने प्राण गंवायेंगे।
हमने हर डायर को मारा, हम ऊधमसिंह बलंकारी
हम शेखर हिंद-सितारे हैं, हर आफत में मुस्कायेंगे।
हम रण में कब हिम्मत हारे, जो बुरी दृष्टि हम पर डारे
हम बच्चे हैं पर बलशाली, अरि का अभिमान मिटा देंगे
हे प्रभो तुम्हारी दया-दृष्टि जग में उजियारा फैलाती
रामचरन बन सूरज हम, जर्रा-जर्रा चमका देंगे।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। खून से खेलें होली।।
भारतवासी भारत मां हित तन-मन दें बलिदान
कभी न हिम्मत हारें रण में दुश्मन को ऐलान
चलायें डट कर गोली, खून से खेलें होली।
पीछे कदम न होगा जब तक सांस हमारी
दे दें जान वतन की खातिर भारत भू है प्यारी
अपना नारा हिन्द हमारा सुनें सभी श्रीमान
चलायें डटकर गोली, खून से खेलें होली।
एक-एक कतरा खूं का है बारूदी गोला
अरि के निशां मिटा देंगे हम पहन बसंती चोला
अति बलशाली वीरमयी है अपना हिन्दुस्तान
चलायें डटकर गोली, खून से खेलें होली।
लहर-लहर लहराये अपना विजयी विश्व तिरंगा
भारत मां की जय हम बोलें, बोलें हर-हर गंगा
बढ़-बढ़कर हम लड़ें लड़ाई, हम हैं वीर जवान
चलायें डटकर गोली, खून से खेलें होली।
सर से बांधे हुए कफन हम देते हैं कुर्बानी
कल इतिहास लिखेगा अपनी यारो अमर कहानी
वन्देमातरम् रामचरन कहि अपना देश महान
चलायें डटकर गोली, खून से खेलें होली।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। लाज जाकी हम राखें।।
रे हमकूं प्राणन ते प्यारौ है हिन्दुस्तान लाज जाकी हम राखें।।
आजादी का रंग-तिरंगा लहर-लहर लहरावै है
वीर सुभाष चन्द्रशेखर की कुर्बानी कूं गावै है
ए रे सूर कबीरा के जा में हैं मीठे गान, लाज जाकी हम राखें।
रामचरन रचि रहयौ रात-दिन रे गर्वील गाथाएं
विजय विहीन दीन होने से बेहतर हैं हम मर जाएं
ए रे हमकूं बननौ है भारत के वीर जवान, लाज जाकी हम राखें।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। विदेशी लूटें भारत कूं।।
जागौ-जागौ रे भारत की वीर जवान, विदेशी लूटें भारत कूं।
पापी पाकिस्तान लिये नापाक इरादे घूमि रह्यौ
काश्मीर को राग अलापै, अहंकार में झूमि रह्यौ
ऐ रे काटौ-काटौ रे कुकर्मी के अब कान, विदेशी लूटें भारत कूं।
राणा के भाले, चौहानी तीर कमानें ले आयौ
धरि कें धीर वीर तुम अरि कूं अपने जौहर दिखलायौ
ऐ रे लायौ मुश्किल से आजादी हिन्दुस्तान, विदेशी लूटें भारत कूं।
ऐसे तैसे देश बचायौ हमने भइया गोरन ते
अब रक्षा करनी है सबकूं अपने घर के चोरन ते
ऐ रे इन जयचंदों से बचि कें रहियौ चौहान, विदेशी लूटें भारत कूं।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत…..
जय-जय वीर जवान
अरे तेरी बढ़ती जाये शान, कदम चुन-चुन रखना।
लहर-लहर लहराये झंडा, ये हम सबका का प्यारा हो
वीर सुभाष कहें एक बानी इंकलाब का नारा हो
इज्जत की खातिर शेखर भी हो बैठे कुर्बान, कदम चुन-चुन रखना।
खूब तिरंगा रंग देश में चहल-पहल दिखलाता है
अंग्रेजी सेना का डायर मन अपने घबराता है
ऊधम सिंह ने आडायर की पल में ले ली जान, कदम चुन-चुन रखना।।
भगतसिंह फांसी के फंदे पर अपना दम तोड़ा था
गुरु ने लाल चिने हंस-हंसकर क्या ये साहस थोड़ा था
रामचरन अब लड़ौ लड़ाई करि के पूरा ध्यान, कदम चुन-चुन रखना।।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’–8.
सर कटाये, न सर ये झुकाये
पीठ दिखला के भागे नहीं हम।
खून की होलियां हमने खेली
युद्ध में आके भागे नहीं हम।
इतना पहचान लो चीन वालो
दृष्टि हम पर बुरी अब न डालो
हम बारुद अंगार भी है
प्यार के सिर्फ धागे नहीं हम।
हम शेरों के दांतों की गिनती
खोल मुंह उनका करते रहे हैं
कोई कायर कहे या कि बुजदिल
जग में इतने अभागे नहीं हम।
एक ही गुण की पहचान वाला
कोई समझे न रामचरन को
आग पर घी रहेंगे परख लो
स्वर्ण पर ही सुहागे नहीं हम।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। मिलायें तोय माटी में।।
एरे दुश्मन भारत पै मति ऐसे हल्ला बोल, मिलायें तोय माटी में।
माना पंचशीलता के हम पोषक-प्रेमपुजारी हैं
और शांति के अग्रदूत हम सहनशील अति भारी हैं
पर रै दुश्मन हाथी सौ मद कौ मारौ मत डोल, मिलायें तोय माटी में।
हम भारत के वीर तीर तकि-तकि के तो पै छोडि़ंगे
तोकूं चुनि-चुनि मारें तेरे अहंकार कूं तोडि़गे
एरे मुंह बन्दूकन के सीमा पै यूं मत खोल, मिलायें तोय माटी में।
पग-पग पापी पाक कूं नीचौ रामचरन दिखलावैगी
जाकूँ चीरें फाड़ें जो ये सोते शेर जगावैगी
एरे हमरे साहस कूं कम करिकें मत रे तोल, मिलायें तोय माटी में।
+|| कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’ ||
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
पहलौ रंग डाल देना तू विरन मेरे आजादी कौ
और दूसरी होय चहचहौ इन्कलाब की आंधी कौ
ऐरे घेरा डाले हों झांसी पै अंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।|
‘भारत गोरो फौरन छोड़ो’ ये जनता का नारा हो
आजादी है जन्मसिद्ध अधिकार ‘तिलक’ ललकारा हो
ऐरे ‘लाला’ लाटी तै पड़े हों निस्तेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।|
जगह-जगह तू चर्चे करना क्रान्तिवीर गाथाओं के
मुखड़े और अंतरे लिखना बिस्मिल की रचनाओं के
एरे अशफाकउल्ला की कविता का भरना तेज,चुनरिया मेरी अलबेली
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।
‘वीर सुभाष’ बने सेनानायक अरिदल से लड़ते हों
‘सूर्यसेन’ अपनी सेना ले संग फतह को बढ़ते हों
एरे ले आ चुनरी में वीरन ‘चटगांव विलेज’,चुनरिया मेरी अलबेली
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।
भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु सांडर्स के घेरे हों
और चन्द्रशेखर मुंडेर पर निगरानी को बैठे हों
एरे दर्शा वीरन रे तू ‘लाहौरी कालेज’, चुनरिया मेरी अलबेली।
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।
फायर-फायर पड़े सुनायी वो ‘जलियां का बाग’ बना
भारत की जनता को डसता वीरन ‘डायर नाग’ बना
एरे बदला लेने तू फिर ऊधमसिंह कूं भेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।
कितनी हिम्मत कितना साहस रखता हिंदुस्तान दिखा
फांसी चढ़ते भगतसिंह के अधरों पर मुस्कान दिखा
एरे रामचरन कवि की रचि वतन परस्त इमेज, चुनरिया मेरी अलबेली।
एरे रंगि दे रंगि दे वीरन रंगरेज, चुनरिया मेरी अलबेली।।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
एरे आयी-आयी है जिय नये दौर की रेल, मुसाफिर जामें बैठि चलौ।
जा में डिब्बे लगे भये हैं भारत की आजादी के
भगतसिंह की कछू क्रान्ति के कछू बापू की खादी के
एरे जाकी पटरी हैं ज्यों नेहरू और पटेल, मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जा की सीटी लगती जैसे इन्कलाब के नारे हों
जा की छुक-छुक जैसे धड़के फिर से हृदय हमारे हों
एरे जा के ऊपर तू सब श्रद्धा-सुमन उड़ेल, मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जाकौ गार्ड वही बनि पावै जाने कोड़े खाये हों
ऐसौ क्रातिवीर हो जाते सब गोरे थर्राये हों
एरे जाने काटी हो अंगरेजन की हर जेल, मुसाफिर जामें बैठि चलौ।।
जामें खेल न खेलै कोई भइया रिश्वतखोरी के
बिना टिकट के, लूट-अपहरण या ठगई के-चोरी के
एरे रामचरन! छलिया के डाली जाय नकेल, मुसाफिर जामें बैठि चलौ ||
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। प्रभु के गुन गाऔ।।
भूखौ प्रभु कौ शेर है देउ पुत्र कूं फार
रानी सत के मत डिगौ तनिक न करौ अबार।
मति मन में घबराऔ,
रानी आंसू नहीं बहाऔ
मोरध्वज की बात बनाऔ
आरौ ले आयौ।
दर पै मुनिवर ज्ञानी
भूखी शेर बहुत है रानी
हमकूं कुल की आनि निभानी
आन तुम चित लाऔ।
रीत सदा चलि आयी
जायें प्राण, वचन नहीं जायी
करवाओ मति जगत हंसाई
सुत कूं चिरवाऔ।
तुरत चलायौ आरौ
खूं कौ फूटि परौ फब्बारौ
मोरध्वज तब वचन उचारौ
भोजन प्रभु पाऔ।
मनमोहन मुस्काये
मृत सुत तन में प्राण बसाये
रामचरन कवि अति हरषाये
प्रभु के गुन गाऔ।
+कवि रमेशराज के पिता स्व. श्री ‘लोक कवि रामचरन गुप्त’ का एक चर्चित ‘लोकगीत’
।। जादू है प्रभु इन चरनन में।।
श्री राम चन्द्र सीता सहित खड़े शेष अवतार
केवट से कहने लगे सरयू पार उतार।।
जल में नाव न डारूं
नैया बीच न यूं बैठारूं
भगवन् पहले चरण पखारूं
करूं तब पार प्रभू।
आज्ञा होय तुम्हारी
तौ मैं तुरत करूं तैयारी
मन की मैंटू शंका सारी
चरण पखार प्रभू।
शंका भारी मन में
जादू है प्रभु इन चरनन में
रज छू उडि़ अहिल्या छन में
पिछली बार प्रभू।।
ये ही काठ कठैया
मेरे घर की पार लगैया
रज छू अगर उड़ गई नैया
लूटै घरबार प्रभू।।
केवट पुनः विचारौ
मोते पाप है गयौ भारौ
जा रज ने कितनैन कूं तारौ
तारनहार प्रभू।।
तुरतहिं चरण पखारे
भगवन नैया में बैठारे
केवट पहुंची दूज किनारे
दिये उतार प्रभू।।
देन लगे उतराई
केवट के मन बात न भायी
केवट बोल्यौ जिय उतराई
रही उधार प्रभू।
आगे वचन उचारे
तुम हो सबके तारनहारे
जब मैं आऊँ पास तुम्हारे
देना तार प्रभु।।