लेख– 3
(1)
भटकते–भटकते ही सही, कहीं तो जाकर ठहरे हम ।
फिर दिखा कुछ यू इस ढलती शाम का नज़ारा ,
दो पल रुके और
आंखों में कैद कर लौट आए हम ।।
भटकते–भटकते ही सही….. ।
(2)
वक्त से फुरसत के कुछ हसीं लम्हा चुराया ।
घर से दूर वादियों में एक दिन का घर बनाया ।
जिम्मेदारियों के इस जीवन में सुकून भी जरूरी हैं ।
भूल उम्र के अंको को, में फिर प्रकृति दर्शन को आया ।
(3)
मजबूर ही होंगे तभी भटक रहे है दर-बदर ।
वरना इस जहां में कौन गुमराह होना चाहता है ।
(4)
मेरी उम्मीदों
पर खरा कोई
क्यों उतरे ।
और
मैंने इतनी उम्मीद
पाली ही क्यों है
किसी से ।।
(5)
मैं सरल, उलझा रहा जिम्मेदारियों के जाल में ।
वो जिद्दी, अपनी जिद्द से सपने पूरे कर गई ।।
(6)
कितना सोचू में तुम्हें ,
और कब तलक गुनगुनाऊं ।
अजीब सा खुमार है ये ।।
बेहिसाब याद आती हो ,
लबों पर जैसे ठहर ही जाती हो ।
(7)
मुझे तुमसे कोई वादा नहीं करना ।
बस हमारा साथ ऐसा ही बना रहे,
की कभी किसी वादे की जरूरत ही ना पड़े ।।
(8)
किसी घाट पर में तेरा इंतजार करू ।
किसी नाव से तू मेरी नैया पार लगाए ।।
वृंदावन की इन गलियों में ,
हम दोनो राधे राधे कहते जाए ।