लेख- आत्महत्या क्यों?
लेख- आत्महत्या क्यों?
निवेदिता एक महाविद्यालय में प्रवक्ता पद पर कार्यरत थी। गेंहुआ रंग, मधुर वाणी, मुस्कराता हुआ चेहरा और आकर्षक व्यक्तित्व के साथ साथ वह बहुत ही मेहनती और कार्यकुशल थी। अपने सहकर्मियों के साथ भी उसका व्यवहार बहुत ही स्नेहपूर्ण था।
एक दिन अचानक उसकी आत्महत्या की खबर आने से हर कोई भौचक्का रह गया।
किसी को यह अंदाजा भी नहीं था कि उस मुस्कुराते हुए चेहरे के भीतर निवेदिता ने दर्द का समंदर समेटा हुआ था।
असल में निवेदिता अपने ससुराल की ज्यातियों से तंग आ चुकी थी। रोज रोज के ताने और क्लेश उसके मस्तिष्क पर अनियंत्रित दवाब डालते जा रहे थे और वह अंदर ही अंदर उसमें घुटती जा रही थी। जब सब कुछ उसके लिये असहनीय हो गया,तो उसे अपने जीवन को ही खत्म कर दिया।
आत्महत्या एक ख़ौफ़नाफ़ शब्द, जिसके बारे में सोचते ही रूह कांप जाती है। जो व्यक्ति यह करता है,वह इसे करने से पूर्व हजारों मौत मरता होगा। कोई विकराल समस्या जिसका कई बार लोग उचित समाधान खोजने में असमर्थ हो जाते है,
वो समस्या या पीड़ा उनपर इस तरह हावी हो जाती है,कि उन्हें अपनी जिंदगी को खत्म करना आसान लगने लगता है।
आखिर प्रश्न यह उठता है,उसने अपनी समस्या का जिक्र अपने परिवारवालों,मित्रों या सहकर्मियों से क्यूँ नहीं किया? क्यों वह मुस्कुराहट का आवरण पहनकर लोगों को झूठे भ्रम में रखे रही? अपनी व्यथा अगर किसी से कह पाती,तो कोई समाधान निकल सकता था। व्यक्ति अपनी मानसिक पीड़ा किसी और को क्यूँ नहीं बता पाता है,यह समझ से परे है।
शायद एक डर मन में रहता है,यदि अपनी बातें किसी और को बतायी, वह विश्वासपात्र नहीं हुआ, तो वह एक सार्वजनिक मज़ाक का पात्र बनकर रह जायेगा।
कई बार सामाजिक रूढ़िवादिता भी व्यक्ति को सब कुछ बर्दाश्त करने के लिये मजबूर कर देती है। उसकी पीड़ा परिवारवालों के दुख का कारण न बन जाए, इसलिये व्यक्ति उनसे सब कुछ छिपाने का प्रयत्न करता है या कई बार परिवारवाले अपनी झूठी शान के लिये सबके साथ सामंजस्य करने की सलाह देकर यह सोचकर चुप्पी साध लेते हैं कि वक्त के साथ सब कुछ ठीक हो जाएगा।
कभी कभी ऐसा भी होता है कि किसी को अपना हमदर्द समझकर उससे अपनी समस्याओं का जिक्र करते हैं। कुछ समय के लिये तो वह स्वयं को उसका हितैषी दिखाकर उसको पूरी सांत्वना देने का प्रयास करता है और जब वह अपने दिल का पूरा हाल उसको सुना देता है,तो कुछ समय पश्चात वही व्यक्ति उसकी मजबूरी का फायदा उठाने लगता है और उसकी बातों को मिर्च मसाला लगाकर औरों के सामने परोसने लगता है।
आज वैज्ञानिक प्रगति के चलते हम पूरी दुनिया से जुड़ गये हैं, सोशल मीडिया के माध्यम से अनगिनत दोस्तों से जुड़ चुके हैं, परन्तु वास्तविक जीवन में आज इंसान औरों से जुड़ने की अपेक्षा तन्हाई में रहना पसंद करने लगा है। सामाजिक कुंठा और निराशा के चक्रव्यूह में फंसकर इंसान डिप्रेशन का शिकार बन जाता है और कई बार अवसाद का वेग इतना ज्यादा होता है कि व्यक्ति का उससे उबरना मुश्किल हो जाता है,और आत्महत्या जैसे निष्ठुर कदम को उठाकर सदा सदा के लिये मौत के आगोश में चला जाता है।
वह यह क्यूँ नही सोच पाता कि आत्महत्या समस्या का समाधान और मुक्ति का रास्ता नहीं है बल्कि एक कायरतापूर्ण भयावह कृत्य है जिसका दर्द उसके अपनों की जिंदगी मौत से भी बदतर बना देता है।
आज जरूरत इस बात की है कि हम सब अपने आसपास रहने वालों के सम्पर्क में रहें एवं अपने प्यार तथा अपनत्व से उनको यह विश्वास दिलाएं कि वह अकेले नहीं है।
यदि हर व्यक्ति कम से कम एक व्यक्ति का हाथ थाम ले और उसकी तकलीफों को समझकर उसमें अपने स्नेह का मरहम लगाए,तो कोई भी व्यक्ति अवसाद और निराशा के भंवर में नहीं फंसेगा और यदि फँस भी गया तो आत्महत्या जैसा कठोर कदम नहीं उठाएगा क्योंकि उसको उस भँवर से पार लगाने के लिये आप जैसे दोस्त पतवार बनकर खड़े होंगे जो उसको कभी भी डूबने नहीं देंगे और उसको कठिनाइयों से पार लगा देंगे।
By:Dr Swati Gupta