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18 May 2023 · 1 min read

लेखनी

गढ़ती हूंँ दिन रात स्वयं को तब कुछ चित्र उकरता है।
जीवन के उजले काग़ज़ पर फिर कुछ शब्द उभरता
देती हूँ नित धार बदन को करती हूंँ तन मन घायल-
तब जाकर कुछ भाव हृदय का हर पन्नों पे उतरता है।

तीखी हूंँ मैं तेज़ बहुत हूंँ नहीं तेज़ मुझसे तलवार।
मन पर घाव करे गहरा जब करूं किसी पर सीधा वार।
कतरा-कतरा कटती हूंँ मैं घिसकर चमक जगाती हूंँ-
मिटते-मिटते भी सपनों को कर जाती हूंँ मैं साकार।

कठिन परिश्रम से खुद को ढाला है दिया सुघड़ आकार।
मुझसे ही घायल होकर जग मुझसे ही पाए उपचार।
अजर अमर हर बात मेरी है अमिट लेखनी सदा सदा-
मैं संहारक, मैं शिल्पकार मैं नई सदी का सृजनहार।

रिपुदमन झा “पिनाकी”
धनबाद (झारखण्ड)
स्वरचित एवं मौलिक

Language: Hindi
90 Views

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