लेखनी का धर्म
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लेखनी हालात पर ही व्यंग्य करने को उठे.
शख्सियत से लेखनी को वैर ना बांटें मनुज.
तेरी कुत्सितता उझल आती है तेरे बोल में.
स्वच्छ कर मन बोलने से कुछ पहले मनुज.
आज सूरज था बड़े उत्साह में गुनगुनाता हुआ.
कल का सूरज काश! मिल जाये यूँ गाता मनुज.
आह से किसी दर्द से कभी लौह है पिघला नहीं.
ताप जो पिघलायगा है जज्ब तुझमें ही मनुज.
छोर पर जंगल के जितने दर्द हैं सब है बसा.
उस दरद को वहीं ही महसूस कर आओ मनुज.
बेबसी होती व्यथा का दर्द दु:ख दारुण कथा.
उन व्यवस्थाओं को तो जा कुचल आओ मनुज.
है नहीं विद्रोह कोई पीर का अंतिम कदम.
‘वैष्णव जन’ में ढाल अपनी काया को मनुज.
लूट-खसोट के आगे किस्मत की परिभाषा क्या?
समतामूलक बने सभ्यता बनो पुरोधा आज मनुज.
जंगल जिसने जीवित रक्खा जीवन उसका हो जीवंत.
संस्कृति है हो गयी नशे में चूर रूप के कहो मनुज.
उपजाऊ धरती हो जाना नीर नदी का बन जाना.
अगर कभी मन में आये परोपकार तेरे ऐ! मनुज.
आज सुबह बड़ा उदास सा अनमना हुआ जाग्रत.
यह दिन किसी सजा से कम नहीं होगा मनुज.
अत: लो पूज खुद को फिर शुभ प्रभात बोलना.
शिव तांडव में विष्णु अवतारों में व्यस्त मनुज.
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