लुटता सालों-साल आदमी
एक लुटेरा सपना लेकर
लुटता सालों-साल आदमी!
गाँव छोड़कर नगर ओढ़कर
दस गज घर में घुटता है।
चौराहों पर भूख दबाए
कुछ नोटों में बिकता है।
आश्वासन की घुट्टी पीकर
कुछ पल को ख़ुशहाल आदमी!
अँखुआई इच्छाओं के जड़
एक रहपटा, दर्द दबाए।
चेहरा कब्जे में मशीन के
इनपुट पर रोए-मुस्काए।
कलपुर्जों की भन्नाहट में
ढूँढ रहा सुरताल आदमी!
कंपन सहकर धीरे-धीरे
सारे पुर्जे खोल रही है।
कील चुभाकर के पहियों में
जीवन-गाड़ी डोल रही है।
ऊबड़-खाबड़ रस्ता, फिर भी
बढ़ा रहा है चाल आदमी!
—©विवेक आस्तिक