लिपटकर हम न साहिल से कभी रोये यहाँ यारो जिये तूफ़ान की जद में हमें आंधी ने पाला है
कहीं है चर्च गुरुद्वारा कहीं मस्जिद शिवाला है
ख़ुदा को भी सभी ने कर यहाँ तक़सीम डाला है
किसी ने आज देखा है मुझे तिरछी नज़र से फिर
मुहब्बत में अदावत की अदा ने मार डाला है
सभी के हाँथ में खंज़र निशाने पर ज़िगर मेरा
रक़ीबों की गली से कल बचा खुद को निकाला है
सफाई लाख दी मैंने मगर उसने नहीं माना
न अपना नाम उसके सँग कभी मैंने उछाला है
गिरे न आँख से आँसू न हो कोई कहीं रुसवा
बहुत रोका किए ख़ुद को बहुत दिल को सँभाला है
कदम आगे नहीं बढ़ते जुबां कुछ कह नहीं पाती
पड़ी है पाँव में बेड़ी लबों पर आज ताला है
उजालों की तमन्ना में यहाँ पथरा गयी आँखें
अँधेरों ने किया जो क़ैद घर घर का उजाला है
नज़र है मंज़िलों पर ही कठिन है रहगुज़र तो क्या
कभी झुक कर नहीं देखा कहाँ किस पाँव छाला है
लिपटकर हम न साहिल से कभी रोये यहाँ यारो
जिये तूफ़ान की जद में हमें आंधी ने पाला है
बहारें रोज़ आती हैं गुलों में रंग भरने को
मगर हर सिम्त गुलशन में ख़िज़ाँ का बोलबाला है
राकेश दुबे “गुलशन”
16-07-2015
बरेली