लिखूँ अब क्या मैं
लिखूँ अब क्या मैं ?
मुझे लिखना नहीं आता।
लिख लेता हूँ उलझुलूल
मन में जो है आ जाता।
न पढ़ी है कभी कविताएँ ।
न लिखी है कभी गाथाएं ।।
क्या लिख दूँ में।
लिख लेता हूँ जो मन में
है मेरी अभिलाषाएं।
न रस का ज्ञान है मुझको।
और न ही अलंकार का
भान है मुझको।
बस लिख लेता हूँ ।
कुछ कभी-कभी ।
दिल में आ जाए जब भी ।।
काश पढ़ी होती मैंने भी मधुशाला।
या लिखा होता भजन मुरलीधर वाला।।
प्यार भी न हुआ मुझको।
न देखी कभी स्वर्ग की मैंने अप्सराएं ।।
देखी होती तो लिख लेता।
मन से श्रृंगार रस ही गढ़ लेता।
कामिनी भामिनी मंत्रमुग्धा से
अलंकरण कर लेता।
क्या कभी लिख पाऊंगा मैं ।
साहित्य सागर में कभी गोता लगा पाऊंगा मैं ।
मैं प्रसिद्ध ही तो नहीं ।
नाम भी मेरा कोई नहीं ।।
अब बता जिन्दगी तुम ही कैसे
लिख पाऊंगा मैं ।।