लिखता रहा तुम्हें खत
सुनकर अंतर्तम के मधु-स्वर,
लिखता रहा तुम्हें खत प्रिये,
लालित्य पदों के मनमोहक,
शब्दसौष्ठव अदभुत संग नित।
मन में उठी तरल तरंगों एवम,
उरभाव उमंगित संवेगों का,
सारांश उडेलता रहा नित्य,
स्मृति में तुम्ही को लिए संग।
अतृप्त आज भी उर मानस,
प्रेम-तृषा होती नहीं कम,
मन पंछी उड़ जाता व्याकुल,
धरागगन विस्तारों मे निशिदिन।
हम दोनो के मध्य कहाँ अब,
द्वैत-भाव का किंचित आधार,
तुम विलीन आत्मा में मेरी,
समा गया मैं कहीं तुम्ही में।
जीवन प्राण सकल सृष्टि में,
मात्र तुम्ही शुचि प्रेयसि मेरी,
अब दर्श तुम्हारे के अभाव में,
खत ही मात्र सहारा चारु।
–मौलिक एवं स्वरचित–
(अरुण कुमार)
लखनऊ(उ.प्र.)