लावा…
लावा…
गली के मोड़ पर खींचा था दुपट्टा
कभी जकड़ा कभी कस कर पटका
छटपटाती रही ज्यूँ जल बिन मीन
दरिन्दे एक नहीं दो नहीं थे वो तीन
बस जूझती रही पैरों को पटक
बेबस चीख हलक में गयी अटक
वैसे भी चीख कौन है जो सुनता
अंधा गूँगा बहरा है इंसान बसता
उसको बस अपने अहम की पड़ी है
ये औरत ऊँचाई पर कैसे खड़ी है
मसल के रख दो इसका मान
कुचल के रख दो सारा स्वाभिमान
आवाज़ उठाने की हिम्मत न कर पाए
कभी न भूले वैसा सबक़ सिखाए
सच कहा मैं कभी न भूलूँगी
उस अपमान में रोज़ सुलगूँगी
पसरी है शांति सी ऊपर ऊपर
उबलता उफनता बवंडर है अंदर
सब्र का ज्वालामुखी एकदिन फटेगा
बदले का लावा सैलाब बन बहेगा
नहीं सकोगे भाँप मेरे मन का ताप
अंतस की अग्नि नहीं सकोगे नाप
अंगारों में तपेगा मेरा स्वाभिमान
ऊँचे पर्वत सा होगा मेरा मान
इसबार मज़बूत होगी मेरी पकड़
ऊँचाई पर खुद को रखूँगी जकड़
गिरि सा अडिग होगा मेरा स्वाभिमान
नीचे तहस नहस होगा तेरा अभिमान
रेखांकन।रेखा