लाल सफेद बस एंड द लास्ट सीट
बीच जंगल में यात्रियों से भरी बस अचानक रुक जाती है। थोड़ा वक्त गुजरने पर भी बस नहीं चल पाती। सभी यात्री परेशान होकर धीरे-धीरे बस से उतरने लगे। कुछ देर और इंतजार के बाद भी बस स्टार्ट नहीं हुई। सभी सवारियां परेशान तो थी लेकिन कुछ समझदार सवारी (मगर समझदार क्यों?) इधर उधर से लिफ्ट लेकर निकल लिए। परंतु कुछ यात्री अभी भी बस के चालू होने का इंतजार कर रहे थे, और क्यों ना करते, कंडक्टर ने सभी की टिकट जो काट रखी थी । इतने में एक उम्मीद की तरह मसीहे के रूप में दूर से एक लाल सफेद बस आती हुई दिखती है। यह देख कर सभी में खलबली मच गई। सभी अपने समान ढो ढो कर लाइन पर लगाने लगे, इस उम्मीद में कि शायद परेशानी से पीछा छूटे। पर उम्मीद यहीं खत्म नहीं हुई थी, बस ड्राइवर ने सभी को तसल्ली दिला रखी थी की आप सब इस बस से चले जाओ सब के टिकट के पैसे मैं दे दूंगा। सब ने हामी भी भरी, आस भी जगी। अब वह घड़ी आई। धीरे-धीरे पूरे ऐब में वह लाल सफेद बस जैसे ही थोड़ा आगे जाकर रुकी, सभी बस की ओर तेजी से दौड़े। ड्राइवर भी बस की और बढ़ा। जैसे ही आगे के शीर्ष दो यात्री चढ़ने को हुए तो उस लाल सफेद बस के सवारी ऐसे घूरने लगे जैसे उनके घर में कोई जबरन घुस रहा हो। पर भला वह क्यों ना घूरते, क्योंकि बस ठसाठस भरी हुई थी।
सब मायूस होकर अपने बस की ओर लोट आए। ड्राइवर और कंडक्टर ने कोशिशें तेज कर दी। आगे का हिस्सा खोला गया लेकिन बस स्टार्ट होते होते फिर रुक जाती। इतना सब होने के बाद भी हम सब में से एक महाशय आखिरी सीट पर बैठे हुए अपनी सीट से टस्स से मस्स ना हुए थे। ना ही वो हमारे साथ 2 गज की रेस में दौड़े और ना ही बाहर आकर ड्राइवर व कंडक्टर की हालात का जायजा लिया। और अगर कोई बाहर आने को कहता तो बस एक ही जवाब,”अजी हमें क्या परेशानी, हम तो सीधे माता के दर्शन करके आए हैं। परेशान हो तो मेरे दुश्मन।” यह सुनकर कईयों के कान गर्माये ही थे कि तभी अचानक से बस स्टार्ट हुई। थोड़ी और देर तक गुर्राई……. थोड़ी और देर,……. और देर……. फिर अचानक से सभी एक ही सांस में बस की और ऐसे भागे जैसे अंदर एक ही सीट बची हो। किसी तरह लोग धक्का-मुक्की कर अंदर पहुंचे।जिसको जो जगह मिली वो वहां बैठ गया। अब दृश्य कुछ क्यों बना कि जो पहले खड़े हुए थे उनमें से कुछ बैठे रह गए और जो बैठे हुए थे उनमें से कईयों को खड़े रहने का सौभाग्य मिला।
बस, सभी के थोड़े थोड़े खिलखिलाते हुए चेहरे लेकर आगे बढ़ी ही थी कि वही महाशय जो अपनी सीट से टस्स से मस्स ना हुए थे, फिर बोल पड़े,”अरे यह तो माता की कृपा है। मुझे तो मालूम था तभी तो मैं बाहर नहीं निकला।”और महाशय ने इतना ही कहा कि बस फिर रुक गए। अचानक से पूरी बस में सन्नाटा छा गया। ड्राइवर ने बस स्टार्ट की……. फिर दोबारा कोशिश की……. फिर दोबारा….., लेकिन बस नहीं चली। एक और बार सभी सवारी उतर गई, मगर वह महाशय अभी भी अपनी सीट पर जमे रहे और ठीक वैसे ही वह लाल सफेद बस भी वही की वही रुकी थी। इतने में कुछ एक दो यात्री उसी बस की ओर बढ़े। कंडक्टर के साथ बातचीत की और किसी तरह अपने को पिचकाते हुए उस ठसाठस मैं अपने आप को फिट कर लिया। यह देखकर कुछ और सवारी भी उसी और जा रही थी कि तभी बस के स्टार्ट होने की आवाज आई। जैसे ही बस ने हुंकार भरी सभी अपना समान ढोते हुए बिल्कुल आखरी चांस की तरह दौड़ पड़े। जिसको जहां सीट मिली वो वहां बैठा। कुछ अपनी पुरानी सीट के लिए झगड़ने लगे, कुछ तबीयत का बहाना करने लगे और कुछ मैं खड़े रहने की ताकत दिखी। लेकिन इसी बीच वह शख्स जो शायद अपनी सीट का पंजीकरण भी करवा चुका होगा, फिर बोल पड़ा,”मैंने कहा था ना कि मत जाइए। भाई, मुझे तो पूरा भरोसा है ऊपर वाले पर तभी तो मैं यहां से खिला तक नहीं।।”बस इतना ही क्या कहा था कि हां, फिर वही हुआ, बस फिर से रुक गई। ड्राइवर ने स्टार्ट की लेकिन नहीं चली। पूरी बस में फिर से वही सन्नाटा छाया। लेकिन इस बार के सन्नाटे में नाही कोई अपनी जगह से हिला और ना ही ड्राइवर व कंडक्टर में से कोई नीचे उतरा। बस सब की नजर उस लास्ट सीट पर बैठे हुए शख्स के ऊपर हो रही कृपा के रूप में बरसती रही, मगर वह लाल सफेद बस अभी भी वही की वही रुकी हुई थी।
शिवम राव मणि