लाठी भी पैर बन जाती है
जब वह क्षण आता है,,
लाठी भी पैर बन जाती है।
कदम चार चल कर जाना,,
उस समय सैर कहलाती है।।
जो रात हुई,, फिर बात वही,,
मुझे बारम्बार सताती है।
क्या जीवन है,, इक क्षण है ये,,
देही को देह समझाती है।।
जो भोर हुआ,, तब शोर हुआ,,
प्रातः ही नींद खुल जाती है।।
जब वह क्षण आता है,,
लाठी भी पैर बन जाती है…..
जब थे चंगे,, हर हर गंगे,,
कह जल में कूद हम जाते थे।
पर अब छूकर पानी,, हारी मानी,,
बूँद पड़ते ही नब्ज जम जाती है।
यही वह क्षण होता है,,
जब लाठी भी पैर बन जाती है।।
जो जाना थोड़ा,, क्या गाड़ी घोड़ा?
पैदल ही दौड़ चले जाते थे।।
अब लाठी के सहारे,, चलकर हारे,,
उठते ही साँस थम जाती है।
जब वह क्षण आता है,,
लाठी भी पैर बन जाती है।।
______________________भविष्य त्रिपाठी