लाखो कि भीड़
कयुँ लाखों के भीड़ में भी अपने आप को अकेला पाती हुॅं
कयुँ अपने मन की उलझनें नहीं बतला पती हुॅं
किस कुसूर कि सजा है ये जिंदगी कयुँ चाह कर भी खुशियाँ का दामन छु नहीं पती हुॅं
कयुँ इतने काटे बीछा दिऐ मेरे रहो मे प्रभु कि मैं एक कदम चल भी नहीं पाती हुॅं