लब पे खामोशियों के पहरे थे।
लब पे खामोशियों के पहरे थे।
मुस्कुराहट के ज़ख्म गहरे थे।
कोशिशें हाथ मलती रहती हैं,
खेल तक़दीर खेल जाती है।
तीर लफ़्ज़ों के कर गए ज़ख़्मी,
कारगर वैसे तेरा तीर नहीं।
जिस पे हम ऐतबार कर पाते,
एक लम्हा यक़ीन का मिलता।
आप जब अपना हमको कहते हैं,
ख़ुशनसीबी पे रश्क आता है।
सारी खुशियां तुम्हारे दम से हैं,
तुमको समझा है ज़िन्दगी अपनी।
सबको पीछे धकेलते जाओ,
आगे बढ़ने का थोड़ी मतलब है।
ज़िन्दगी का यक़ीं नहीं कुछ भी,
वक़्त को वक़्त दे नहीं सकते।
ज़िन्दगी भी परेशां हो जाएं,
कितनी उम्मीदें दिल में पलती हैं।
डॉ० फ़ौज़िया नसीम ‘शाद’