लड्डू
कल पाँच अगस्त थी
काजू, बादाम, पिस्ता, अखरोट
व्यवस्था के दिल पर करते हुए चोट
अपने जुदा स्वरूपों के संग
एकजुटता का मलकर रंग
प्यार की चाशनी में लिपटे
समूचे सने हुए थे
खूबसूरत लड्डू
बने हुए थे।
आज छः अगस्त है
एकता का भारू रंग
मल मल कर छुटाया है
पुरानी पहचान को बापस
मुश्किल से पाया है
आज काजू, काजू है
बादाम फिर से बादाम है
पिस्ता, अखरोट का भी
अपना अपना नाम है
हर मेवा अपना अलग रंग
अलग असर दिखा रहा है
मगर अफसोस लड्डू कहीं भी
नहीं नज़र आ रहा है।
जब दोबारा पाँच अगस्त आएगी
इन मेवों की रग रग में
प्रेमरस की लहर आ जायेगी
शब्द समर्थों के शब्दों की
मिठास की महक में मंत्रमुग्ध
सभी मेवे मीठे में सन जाएंगे
कुछ समय के लिए फिर से
लड्डू बन जाएंगे।
काश! कोई पाँच अगस्त ऐसी भी आती
जब ये काजू, बादाम, पिस्ता, अखरोट
भूलकर एक दूसरे के ऐब और खोंट
अपनी धार कोर नोकों को घिसकर
अपनी खूबियों के साथ पिसकर
महीन बारीक होकर
एक दूसरे में शरीक होकर
प्यार की मिठास में ऐसे सन जाते
कि न काजू, काजू नज़र आता
न बादाम, बादाम
पिस्ता, अखरोट का भी
न अलग रँगरूप होता न नाम
तब यकीनन अपनी ताकत का
दुनियाँ में लोहा मनवाते
काश ! आकर्षक अटूट
दिलकश लड्डू बन पाते।
संजय नारायण