लड्डू बद्री के ब्याह का
“अरी बद्री की अम्मा, कब खिला रही हो बद्री के ब्याह का लड्डू ? अब तो छोरे को जवान हुए भी उमर बीत गयी है और तुम हो कि चुप्पी साधे बैठी हो। ऐसे तो छोरा बुड्ढा हो जायेगा।”
पडौस की औरतें जब-तब ब्रदी की अम्मा को ताना दे जातीं और वह कुछ कह न पाती। कभी जब बद्री सुनता तो मन मसोस कर रह जाता पर क्या करता ? जब से मवेशियों का चारा काटने की मशीन में आकर उसका हाथ खराब हुआ था, छोरियों के परिवार वाले उससे कन्नी काटने लगे थे। छोटा सा घर और खेत था उनका गाँव के छोर पर। परिवार में बस माँ-बेटा ही थे। गुजर-बसर लायक खेती हो जाती थी। थोड़ी सी जमा-पूँजी भी थी।
और फिर एक दिन जब बद्री फसल बेचकर पास के शहर से लौटा, साथ लाल जोड़े में लिपटी दुल्हन भी लेकर लौटा। सारा गाँव चकित और अम्मा खुशी से फूली न समा रही थी। कुछ दिन गाँव में खूब लड्डू बँटे, ब्याह के गीत गाये गये। फिर सब अपनी-अपनी दिनचर्यामें मगन हो गये। अम्मा लाडले की जिम्मेदारी से छूँटीं तो बहू को सब थमा तीर्थयात्रा पर निकल गयीं।
अम्मा को गये दो ही रोज बीते कि सुबह-सवेरे बद्री की चीख-पुकार पर सारा गाँव इकठ्ठा हो गया। घर की सारी जमा-पूँजी सहित बद्री की
दुल्हन घर से चम्पत हो गयी थी। ब्याह का लड्डू बद्री को पचा नहीं था।
रचनाकार :- कंचन खन्ना, मुरादाबाद,
(उ०प्र०, भारत)।
सर्वाधिकार, सुरक्षित (रचनाकार)।
दिनांक :- ०७/०६/२०२२.