लज्जा
लज्जाभागती जाती थी वह
थक कर थम जाती थी वह
एक निर्धन नव-यौवना।
समेटती वह अपने तन के
जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को
एक असहाय हिरणी सी
भागती जाती थी वह।
वस्त्र जो कि
कामियों की कुदृष्टि से
हो गया था तार-तार
रिस रहे थे गोरे तन से
रक्त उसकी लाज के
और वह सुनसान जंगल
घोर अति-घनघोर तिमिर को
चीरती बरसात में
भागती जाती थी वह
एक निर्धन नव-यौवना।।
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”