थैला (लघुकथा)
थैला (लघुकथा)
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शाम के पॉंच बजे थे । दफ्तर की छुट्टी होने वाली थी । सहसा साहब की नजर बड़े बाबू की तरफ गई। बड़े बाबू की पैंट की बाँईं जेब कुछ ज्यादा ही फूली नजर आ रही थी । बड़े बाबू इससे पहले कि दफ्तर से बाहर जाते ,साहब ने कड़कदार आवाज लगाकर कहा” बड़े बाबू जरा रुकिए ! ”
दफ्तर में सभी की निगाहें अब बड़े बाबू की तरफ थीं और बड़े बाबू अपराधी की तरह रुके हुए खड़े थे ।
“आपकी जेब बहुत फूली हुई लग रही है.. क्या बात है बड़े बाबू ? ” – साहब का इतना कहना था कि बड़े बाबू का चेहरा पीला पड़ गया ।
“जी कुछ नहीं” घबराते हुए उन्होंने पेंट की जेब को अपने बाएं हाथ से ढक लिया। सबका शक गहरा हो गया ।
“आपकी जेब में जो है ,निकालिए। हम भी तो देखें कि आप क्या लेकर जा रहे हैं”
बड़े बाबू के सामने शायद अब कोई चारा न बचा था ।उन्होंने अपराधी की तरह गर्दन झुकाए हुए पैंट की जेब में हाथ डाला और एक मुड़ा-तुड़ा थैला बाहर निकाला ।
“यह तो थैला है “-लगभग सभी ने एक साथ एक स्वर में कहा ।
“तो इसमें छुपाने की क्या बात बड़े बाबू ?”- साहब ने आश्चर्य से पूछा।
बड़े बाबू के चेहरे पर अभी भी शर्म थी। कहा ” साहब दफ्तर से लौटते समय कुछ सौदा – सामान लेकर जाता हूं ।सामान को थैले में रखने के लिए थैले के पैसे दो रुपए कभी चार रुपए दुकानदार को देने पड़ते हैं, सो मैंने सोचा कि थैला जेब में क्यों न लाया जाए और सामान कपड़े के थैले में ले जाया जाए ”
बड़े बाबू का इतना कहना था कि साहब का चेहरा खुशी से भर उठा। उन्होंने कहा- “इसमें शर्म की क्या बात है ? जेब में थैला लेकर आना और जेब में थैला लेकर जाना यह तो गर्व की बात है ।और जो गर्व की बात है ,उसे छुपाकर क्यों लेकर जाएं? कल से बड़े बाबू ही नहीं इस दफ्तर के सब लोग और स्वयं मैं भी हाथ में थैला लेकर आएंगे और हाथ में लेकर जाएंगे और जो भी सामान खरीदेंगे हम गर्व से अपने घर कपड़े के थैले में लेकर जाएंगे। ”
अब बड़े बाबू गर्व से हाथ में कपड़े का थैला लेकर चल रहे थे।पूरा दफ्तर उनके साथ था।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा रामपुर(उ. प्र.)
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