*लघुकविता*
#लघुकविता-
■ दौर है अब दूरियों का।
[प्रणय प्रभात]
“छोटे से एक बुलावे पर
ऐसे उठ के भी मत भागो,
जो लोग बुलाना बंद करें,
सम्बन्धों की लौ मंद करें।
सिर को नोचें, मन में सोचें,
ये तो सच में आ जाता है।।
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#आत्मकथ्य-
सुदीर्घ अनुभव पर आधारित बात। बस इतना बताने के लिए कि अब मौजूदगी से ज़्यादा मायने नदारदगी के हैं। जितनी जल्दी नज़दीक जाएंगे, दूर होते जाएंगे, दिमाग़ों से। दिल बेचारे अब बचे कहाँ हैं…।।
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●संपादक/न्यूज़&व्यूज़●
श्योपुर (मध्यप्रदेश)