लघुकथा
“नया सवेरा”
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उन्मादित भोर की ढ़़लती शाम सी निढ़ाल स्वरा को बिस्तर पर पड़े देखकर गर्व ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा-” खुद को सँभालो स्वरा, मन छोटा नहीं करते। तुम तो केंसर के भयावह परिणामों से भली-भाँति अवगत हो।अभी तो ये तुम्हारे गर्भाशय के भीतर ही जड़ें फैला रहा है,यदि बाहर फैल गया तो जानलेवा अवश्य साबित हो सकता है।ईश्वर ने हमें साथ-साथ रहने का अवसर दिया है फिर मन उदास क्यों?”
“गर्भाशय निकलने के बाद अगर मेरा स्त्रीत्व समाप्त हो गया तो , मैं तुम्हें पहले की भाँति आत्मिक सुख नहीं दे पाऊँगी गर्व।
” ऐसा नहीं सोचते पगली, साइंस ने बहुत तरक्की कर ली है।माना ऑपरेशन के बाद तुम्हारे व्यवहार में थोड़ा सा बदलाव आना स्वाभाविक है।इसका मतलब ये नहीं कि तुम जीने की उम्मीद छोड़ दो। स्वरा मेरा जीवन है जो मेरे मन-मंदिर के उपवन में तुलसी बनकर महक रही है। अंतस के तम से बाहर निकलकर, दृढ़ विश्वास की ज्योति जलाए आगे कदम बढ़ाओ।देखो, भोर की नूतन आभा आरती का थाल सजाए तुम्हारे स्वागतार्थ खड़ी है।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’
वाराणसी (उ. प्र.)
संपादिका- साहित्य धरोहर