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■ कॉलेज का आख़िरी दिन
【प्रणय प्रभात】
आज प्रो. रमन की सेवानिवृत्ति का दिन था। कॉलेज परिसर में चल रहा था विदाई समारोह। जहाँ उन्होंने दो-चार-छह नहीं पूरे 16 साल गुज़ारे। वो भी एक आदर्श व समर्पित विभागाध्यक्ष के रूप में। भव्य मंच से उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रशंसात्मक भाषणों का दौर पूरा हो चुका था। अब बारी ख़ुद प्रो. रमन के भाषण की थी। मंच पर एक कुर्सी अब भी खाली थी। जो उनकी जगह लेने के लिए पदस्थ प्रो. माधवी के लिए आरक्षित थी। जिन्हें एयरपोर्ट से सीधे समारोह में पहुँचना था।
फ्लाइट लेट होने की वजह से प्रो. माधवी डेढ़ घण्टे की देरी से मंच पर पहुंचीं। डायस पर बोलते प्रो. रमन की निगाह मंच की ओर बढ़ती प्रो. माधवी पर गढ़ चुकी थी। अधेड़ उम्र के बाद भी वही चेहरा, वही लावण्य, वही सौम्यता। अविवाहित प्रो. रमन की आँखों में अनायास बरसों पुरानी यादें तैर गईं। वही यादें, जिनसे उनके जीवन का सीधा वास्ता था। याद उस दिन की भी, जब उन्होंने पहली बार माधवी को देखा था। वो स्नातक में दाखिला लेने के लिए पहली बार कॉलेज आई हुई थी। जबकि रमन को पीएचडी के लिए उसी शाम स्वीडन रवाना होना था।
अपलक उसी की ओर देख रहे प्रो. रमन लगभग अवाक से थे। इस वियोगदायी संयोग और समय के रुख पर। उन्हें याद था कि वह दिन भी कॉलेज में उनका आखिरी दिन था। ठीक आज ही की तरह। अगले दिन उन्हें अपने पैतृक गाँव जो लौट जाना था। हमेशा-हमेशा के लिए।
उन्हें क्या पता था कि जिसकी चाह में अकेले उम्र गुज़ार दी। जिसकी तलाश में विदेश से वापसी के बाद निगाहें हर राह, हर क़दम पर बेताब रहीं। उससे दूसरी और आख़िरी मुलाक़ात उम्र के इस मोड़ पर होगी।
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इकतरफा प्यार
अधूरा इश्क