#लघुकथा
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■ फिर टूट गया मुग़ालता
【प्रणय प्रभात】
“अब तो रात के 12 बज गए यार! खाना खा लो तुम लोग भी। ताकि कम से कम आज तो टाइम पर सो सको।”
सुशांत ने सुहानी से कहा। जो सुबह से दस मिनट भी चैन से नहीं बैठी थी और दिन का खाना भी ढंग से नहीं खा पाई थी। वजह था गर्मी की छुट्टियों में मायके में सभी रिश्तेदारों का जमावड़ा। सुहानी और सुशांत सहित कुल चार-पांच प्राणी घर में थे। बाक़ी मल्टीप्लेक्स में मूव्ही देखने गए हुए थे। जिनकी वापसी में थोड़ा सा वक़्त बाक़ी था। यही कारण था कि सबके साथ खाना खाने की बात कह कर सुहानी ने अपने पति को टाल दिया। सुशांत कुछ कहना चाहता था पर कुछ पुराने और कड़वे अनुभवों ने उसे कुछ भी कहने से रोक दिया।
देखते ही देखते क़रीब पौन घण्टा और बीत गया। दर्ज़न भर से अधिक परिजनों की टोली मूव्ही की चर्चा करते हुए घर में दाखिल हुई। महज दस मिनट बाद सब डाइनिंग टेबल पर जम चुके थे। इनमें पहले से घर में मौजूद कोई प्राणी नहीं था। सुहानी ओपन किचन में खाना गर्म कर रही थी। सुशांत की ताना मारती हुई सी निगाहें उसकी झेंपी हुई सी नज़रों से दो बार टकरा चुकी थी।
बेहद थकी हुई सुहानी को उसके उलाहने के डर से कहीं ज़्यादा भरोसा अब भी अपने रिश्तों पर था। तभी अचानक मंझली भाभी की आवाज़ ने उसकी डगमगाती आस को सहारा देने का काम किया। अपने नाम की पुकार सुनते ही गदगद सुहानी ने एक गर्वित सी निगाह सुशांत की ओर फेंकी। जो शायद बताना चाहती थी कि उसके अपनों को भी उसकी उतनी ही परवाह है, जितनी कि उसे। यह और बात है कि इस उछाली गई निगाह को झुकाने का काम भाभी की पूरी बात ने कर दिया। दरअसल भाभी की पुकार उसके लिए आमंत्रण न होकर आदेश भर थी। जो उसे सादा चावल को फ्राई करने के लिए कह रही थी। सुशांत बिना कुछ बोले उठ कर गेस्ट-रूम की ओर चल दिया।
अगले एक घण्टे बाद वो नींद की गोद में था। दूसरी तरफ सुहानी हंसी-ठट्ठे के बीच जारी डिनर के ख़त्म होने की बाट जोह रही थी। ताकि वो भी चैन से दो रोटी पेट में डाल कर तीन-चार घण्टे की नींद ले सके और सुबह जल्दी उठ कर उन सबको बेड-टी सर्व कर सके, जिनका आज सोने का इरादा लग नहीं रहा था।
■प्रणय प्रभात■
श्योपुर (मध्यप्रदेश)