#लघुकथा / #विरक्त
#लघुकथा-
■ विरक्त
【प्रणय प्रभात】
बड़े दिनों बाद आज चमन लाल जी मिल गए। दुआ सलाम के बाद शुरू हुआ हालचाल का दौर। पूछा तो बोले- “बस, अब विरक्त हो गया हूँ भाई! क्या अपना, क्या पराया? बहुत कुछ देख लिया महामारी के दौर में।”
मेरे कानों को भा रही थी उनकी बात। मन को भी अच्छा लग रहा था एक 80 साल के बुज़ुर्ग का यह समयानुकूल बर्ताव। मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले ही एक दीन-हीन महिला ने पास आकर अपना मैला-कुचैला सा हाथ उनके आगे पसार दिया।
चेहरे-मोहरे व परिधान से उपजती भद्रता व सम्पन्नता की वजह से उस याचिका की उम्मीद का केंद्र वैसे भी भी वही बनने थे। मैं तो उस वक़्त नहाया-धोया न था। शरीर पर रात के सिकुड़े हुए कपड़े भी मुंह चिढ़ाने वाले थे।
चमन लाल जी ने हिकारत भरे लहजे में अपना हाथ झटकते और आंखें हुए उसे आगे बढ़ने का इशारा करते तनिक देर नहीं लगाई। इसके बाद भी उसकी याचना बंद नहीं हुई तो वो अपना आपा खो कर झल्ला पड़े।
महिला को लगभग डपटते हुए बोले- “ऐसे ही पैसे बाँटता रहूँगा तो तेरी तरह ख़ुद माँगता नज़र आऊँगा किसी रोज़। चल हट यहां से। बात करने दे।”
मैं हतप्रभ था विरक्ति के चोले में सजी आसक्ति का दीदार कर। हाथ जोड़ कर मुझे भी कूच करना मुनासिब लगा। शायद उस याचिका की तरह, जो ग़लत-फ़हमी का शिकार हो गई थी। बिल्कुल मेरी तरह।
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-सम्पादक-
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(मध्य-प्रदेश)