लघुकथा-दृष्टिकोण
संगीता अपने पन्द्रह वर्षीय भाई निशांत को साथ लेकर एक रेस्टोरेंट में गई। वहा लड़के-लड़कियों की पहले से काफी भीड़ थी, कोई मोबाइल की बातें कर रहे थे तो कोई लेपटॉप या टेब वगैरह की। संगीता अपने भाई के साथ एक खुले केबिन में बैठी ओर खाने के लिए ऑर्डर किया।
अभी वेटर उनका ऑर्डर लिखकर गया ही था कि निशांत के चेहरे से खुशी बरबस ही झलक रही पड़ी। वह कभी रेस्टोरेंट के दरवाजे की तारीफ करते हुए कहता-‘‘देखो दीदी, वो दरवाजे का रंग कितना सुन्दर है, वह पर्दा कितना डिजाइनदार है, ये चम्मच कितना अच्छा है, वो तस्वीरें कितनी अच्छी हैं? आदि।
संगीता अपने भाई के चेहरे पर खुशी देख बेहद खुश थी और वह उसकी हर बात में सहमति जता रही थी। निशांत कभी किसी की ओर देखकर मुस्कराता तो कभी वहाँ की वस्तुओं की तारीफ करता हुआ आश्चर्यचित होता। वहीं पास बैठे लड़के-लड़कियाँ निशांत को देखकर हँसने लगे।
अभी निशांत अपने उसी मिजाज में लगातार हर किसी को निहार रहा था और हर एक वस्तु या लोगों की तारीफ कर रहा था कि एक लड़का उनके पास आया और संगीता को कहने लगा-‘‘मैडम आप इसे किसी मनोचिकित्सालय में क्यों नहीं ले जाते?’’
‘‘हम इसे कल ही चिकित्सालय से लेकर आएं हैं, लेकिन मनोचिकित्सालय से नहीं, नेत्रचिकित्सालय से। ये जन्म से देख नहीं सकता था कल ही किसी भले पुरुष के उपकार से इसकी आंखों की रोशनी वापस आई है।’’ संगीता ने जवाब दिया।
मनोज अरोड़ा
लेखक, सम्पादक एवं समीक्षक
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