लघुकथा-दर्पण
?दर्पण?
दर्पण गर्व से मस्तक ऊंचा किये खड़ा था। आखिर गर्वित हो भी क्यों न? सदियों से राजा हरिश्चंद्र के बाद सच से जिसका नाम जुड़ा है,वह दर्पण ही तो है।
“दर्पण झूठ नहीं दिखाता” अक्सर यह पंक्ति बड़े गर्व और विश्वास के साथ समाज में उद्धृत की जाती है।इसी आत्ममुग्धता में वह इतरा रहा था कि एक कुर्ताधारी मूँछों पर ताव देता हुआ उसके सामने आकर मुस्कुराने लगा।क्या ही आदर्श नायक की छवि धारण किये था,पर उसके श्वेत कपड़ों के भीतर छिपे कुटिल मन के अट्टाहास को दर्पण अपने कानों से सुन रहा था। दृश्य वह दिखा सकता था,पर ध्वनि को कैसे दिखाये।ध्वनि को देखा नहीं जा सकता,पर उसे सुना जा सकता है, सुनकर बताया जा सकता है।
दर्पण के कन्धे झुक गये,वह उस शख्स से नजरें चुराना चाहता था।पर मजबूर था,उसके पैर जो नहीं थे।आखिर ऐसी स्थिति में वह कैसे भागता?अब तक स्वयं पर इतरा रहे दर्पण को अपनी विकलांगता का आभास भीतर से कचोटने लगा।वह न केवल चलने में असहाय था,बल्कि बेजुबान भी था।
बेजुबान….?हाँ,हाँ,बेजुबान।
लोगों ने अब तक जिसे दर्पण का सच कहकर उद्घाटित किया था, वास्तव में उसमें दर्पण की कोई भूमिका थी ही नहीं।उसके सामने खड़े होकर जिसने जैसे स्वयं को जिस मुखौटे के साथ दिखाना अथवा देखना चाहा,वही प्रतिबिंब आईने की स्वच्छ जल जैसी आँखो ने सम्मुख रख दिया।उस जल की स्वच्छता,निर्मलता और उस पर बना प्रतिबिंब निर्द्वन्द सत्य है, परन्तु प्रतिबिंब के आधार स्रोत की सर्वांग सत्यता और निर्मलता संदिग्ध है।यह दर्पण जानता है,पर जुबान न होने के कारण किसी को बता नहीं पाता।
ओह!कैसी विडम्बना है,सत्य के पर्याय दर्पण तेरी यह विवशता।तू केवल प्रायोजित सत्य को ही दिखा सकता है,तू आवरण के पीछे नहीं झांक सकता,तू असत्य के अभिनय को न देखना चाहते हुए भी भाग नहीं सकता,तू आवरण के पीछे के सत्य को सुन सकता है,पर खेद है जुबान न होने के कारण तू किसी को कुछ बता नहीं सकता।आह!एक सुन्दर दर्पण का सत्य क्या मात्र उसकी विवशता है?गर्व चूर चूर था, असहायता के आँसुओं से दर्पण की दृष्टि धुंधला गयी थी।
✍हेमा तिवारी भट्ट✍