लघुकथा – घर का उजाला
लघुकथा – घर का उजाला
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“सुन रहे हो क्या ? ” सुनन्दा ने प्रीत से कहा।
“हाँ , बोलिए जी क्या कह रही हो ?”
“जल्दी से पंखे बंद कर दीजिए। पुराने वाले घर से माँ चली आ रही है। शायद कुछ पैसे की जरूरत होगी तभी आ रही है। बोल देंगे हमारे पास कहाँ है पैसे ? ”
जैसे ही माँ घर में पहुँचती है –
“बेटा पसीने सूखाने के लिए अखबार से हवा करते हुए उफ! ये गर्मी !”
“बेटा बिजली नहीं है क्या ? ”
“माँ जी बिजली तो है मगर दोनों पंखे जल गए ……. ठीक करवाने हैं मगर आजकल थोड़ा हाथ तंग चल रहा है।”
माँ ने अपनी जेब से तीन हजार रुपये निकाले और बेटे को कहा – ” गर्मी बहुत ज्यादा है , बच्चे बीमार हो जाएंगे। मुझे आज ही बुढापा पेंशन मिली है। पंखे ठीक करवा लीजिए।”
इतने में ही दस वर्षीय पौत्र साहिल स्कूल से आता है बूढ़ी अम्मा के चरण स्पर्श करता है और पंखे का स्विच ऑन कर देता है। पंखे चलने लगते हैं। बूढ़ी अम्मा साहिल के सिर पर हाथ रखकर कहती है – ” ये है मेरे घर का उजाला ! ” ये कहती हुई अपने पुराने घर की तरफ चली जाती है।
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अशोक कुमार ढोरिया
मुबारिकपुर(झज्जर)
हरियाणा