लघुकथा – गुरु दक्षिणा
उसे सरकारी अस्पताल में कस्टमर काउंटर पर कार्य करते देख वृद्ध रामनाथ जी चौंक पड़े।
“अरे! यह तो मेरा स्टूडेंट रहा है। चलो मिल लेता हूँ। वह भी खुश होगा मुझे अचानक देख। ”
पास पहुंच कर प्रसन्नता से – “सुनो बेटा”
“क्या है? ”
“अरे बाबा काम क्या है? बोल ना। ”
“सुनो बेटा तुम हरि हो न।”
“अच्छा तो नाम भी पता कर लिया। ”
“अस्पताल वाला देखा नहीं कि लगे अपना काम निकालने।”
“काम बोल। मेरे पास फालतू समय नहीं। समझा।”
उसने रामनाथ जी की ओर सिर उठाकर एकबार देखना भी उचित न समझा।
“बेटा मैं पं. रामनाथ तुम्हारा नवीं कक्षा का क्लास टीचर। पहचाना नहीं मुझे ?”
पब्लिक को डपट डपट कर उत्तर देते हुए बोला -” ओ बुढ़ऊ। मतलब के लिए अस्पताल वालों को सब रिश्तेदार बना लेते हैं।”
” नहीं बेटा। तुम सरयू नगर स्कूल में पढ़े हो न। तुम्हें देखा इसीलिए मिलने चला आया। ”
” चल चल हो गया न तेरा। खाली पीली मेरा टाइम खोटी मत….”
“अच्छा बेटा। क्षमा करना। गलती हुई जो तुम से मिलने चला आया।”
रामनाथ जी ने हाथ जोड़ कर कहा और स्वयं ही झुककर हरि के पांव छू लिए, फिर आँखें पोंछते आगे बढ़ गये।
आज उन्हें अपने शिक्षक जीवन की सबसे बड़ी गुरु दक्षिणा जो मिली थी।
रंजना माथुर
अजमेर (राजस्थान )
मेरी स्व रचित व मौलिक रचना ©