लघुकथाएं
1 युग-विडम्बना [लघुकथा ]
सावित्री की बेटी पारो के ससुराल से– चूस कर बुरा हाल करने लगे । शायद स्तनों से निकलता दूध उनके लिए पर्याप्त नहीं था । भूखे पिल्लों की चूं – चूं की आवाजें हमारे कमरे तक आ रही थीं । मेरी पत्नी ने जब यह दृश्य देखा तो रात की बची रोटियां लेकर उस कमरे की ओर चल दी । मैं खिडकी से ये सब देखे जा रहा था । जैसे ही वह वहाँ पहुंची कुतिया उसे देखकर जोर जोर से भौंकने लगी ।ऐसे लगा मानो वह मेरी पत्नी पर टूट पड़ेगी । तभी मेरी पत्नी ने उसे प्यार से पुचकारा और रोटियां तोड़कर उसके मुंह के आगे डाल दीं ।अब कुतिया आश्वस्त हो गई थी कि उसके बच्चों को कोई खतरा नहीं है । कुतिया ने रोटी सूंघी और एक तरफ खड़ी हो गई । भूखे पिल्ले रोटी पर टूट पड़े । कुतिया पास खड़ी अपने पिल्लों को रोटी खाते देखे जा रही थी । सारी रोटी पिल्ले चट कर गये । भूखी कुतिया ने एक भी टुकड़ा नहीं उठाया ।मातृत्व के इस दृश्य को देख कर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और इस मातृधर्म के आगे मेरा मस्तक स्वतः नत हो गया । मेरा मन भीतर ही भीतर मानो सुगंध से महक उठा ।
तभी मैंने दरवाजे पर पड़ा अखबार उठाया और देखा , यह खबर हमारे शहर की ही थी । कोई महिला अपनी डेढ़ साल की बच्ची को जंगल में छोड़कर अपने प्रेमी संग फरार हो गई थी इस उद्देश्य से कि शायद कोई हिंसक जानवर इसे खा जायेगा ।आर्मी एरिया होने के कारण पैट्रोलिंग करते जवानों ने जंगल से बच्ची के रोने की आवाजें सुनी तो उसे उठा लाए और पुलिस के हवाले कर दिया । फोटो में एक महिला पुलिस कर्मी की गोद में डेढ़ साल की बच्ची चिपकी थी । पिता को बच्ची कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के उपरांत ही सौंपी जानी थी । खबर को पढ़ने के उपरांत दोनों दृश्य मेरे मानस पटल पर रील की भांति आ जा रहे थे । अब इस खबर की दुर्गंध से मेरा मन कसैला हो गया था ।
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घाटे का सौदा [लघुकथा]
सूरज के मोबाईल पर मैसेज आया कि देश के साहित्यकारों की रचनाओं का एक वृहद ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है | जिसमें वह भी शामिल है | उसकी भी दो रचनाओं को स्थान मिला है | मैसेज पढ़कर उसे बहुत ख़ुशी हुई | उसे याद आया लगभग एक वर्ष पहले उसने इस वृहद ग्रन्थ के लिए अपनी रचनाएँ भेजी थीं | उसने तुरंत उस नम्बर पर फोन लगाया | किसी भद्रजन ने फोन उठाया बड़े अदब से बात की | जब सूरज ने ग्रन्थ की प्रति लेने के लिए कहा तो उन्होंने बताया किआप हमारे बैंक खाते में मात्र छः सौ रूपये जमा करवा दें | राशी मिलते ही एक प्रति आपको रजिस्टर्ड डाक से भेज दी जाएगी | छः सौ रुपये सुनते ही उसकी रचना – प्रकाशन की ख़ुशी एकदम ठंडी पड़ गई | बेरोजगार सूरज को कवितायेँ लिखना भी घाटे का सौदा लगने लगा | उसने चुपचाप फोन काट दिया ||
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कर्जमुक्त [लघुकथा ]
एक वक्त था , सेठ करोड़ीमल अपने बहुत बड़े व्यवसाय के कारण अपने बेटे
अनूप को समय नहीं दे पा रहे थे | अतः बेटे को अच्छी शिक्षा भी मिल जाये और व्यवसाय में व्यवधान भी उत्पन्न न हो इसलिए दूर शहर के बोर्डिंग स्कूल में
दाखिल करवा दिया | साल बाद छुट्टियाँ पडतीं तो वह नौकर भेज कर अनूप को घर
बुला लाते | अनूप छुट्टियाँ बिताता स्कूल खुलते तो उसे फिर वहीँ छोड़ दिया जाता| वक्त बदला, अब अनूप पढ़-लिख कर बहुत बड़ा व्यवसायी बन गया और सेठ करोड़ी मल बूढ़ा हो गया | बापू का अनूप पर बड़ा क़र्ज़ था | उसे अच्छे स्कूल में जो पढ़ाया – लिखाया था | बापू का सारा कारोबार बेटे अनूप ने खूब बढ़ाया – फैलाया | कारोबार में अति व्यस्तता के कारण अब अनूप के पास भी बूढ़े बापू के लिए समय नहीं था | अतः अब वह भी बापू को शहर के बढ़िया वृद्धाश्रम में छोड़ आया और फुर्सत में बापू को घर ले जाने का वायदा कर वापिस अपने व्यवसाय में रम गया | वृद्धाश्रम का मोटा खर्च अदा कर अब वह स्वयं को कर्जमुक्त महसूस कर रहा था ||
5
औजार
सोहन का तबादला दूर गांव के हाई स्कूल में हो गया |शहर की आबो –हवा छूटने लगी |पत्नी ने सुझाव दिया,कल हमारे मोहल्ले में नये बने शिक्षा मंत्री प्रधान जी के यहाँ आ रहे हैं | क्यों न माताजी को उनके सामने ला उनसे ,मंत्री जी से तबादला रोकने की प्रार्थना करवाई जाये | शायद बूढ़ी माँ को देख मंत्री जी पिघल जाएँ और तबादला रद्द करवा दें | सोहन को सुझाव अच्छा लगा |वह शाम को ही गाँव रवाना हो गया और बूढ़ी माँ को गाड़ी में बैठा सुबह मंत्री जी के पहुंचने से पहले ही प्रधान जी के घर पहुँच गया |ठीक समय पर अपने लाव –लश्कर के साथ मंत्री जी पहुँच गये | लोगों ने अपनी –अपनी समस्याओं को लेकर कई प्रार्थना –पत्र मंत्री महोदय को दिए | इसी बीच समय पाकर सोहन ने भी अपनी बूढ़ी माँ प्रार्थना –पत्र लेकर मंत्री जी के सम्मुख खड़ी कर दी | कंपती-कंपाती बूढ़ी माँ के हाथ के प्रार्थना –पत्र को मंत्री जी ने स्वयं लेते हुए कहा –बोलो माई क्या सेवा कर सकता हूँ |तब बूढ़ी माँ बोली –साहब मेरे बेटे की मेरे खातिर बदली मत करो ,इसके चले जाने से इस बूढ़ी की देखभाल कौन करेगा |शब्द इतने कातर थे कि मंत्री जी अंदर तक पिघल गये |बोले –ठीक है माई ,आपके लिए आपके बेटे की बदली रद्द कर दी गई |उन्होंने साथ आये उपनिदेशक महोदय को कैम्प आर्डर बनाने को कहा |कुछ ही देर में तबादला रद्द होने के आर्डर सोहन के हाथ में थे | सोहन और बूढ़ी माँ मंत्री जी का धन्यवाद करते हुए घर आ गये |शाम की गाड़ी में सोहन ने बूढ़ी माँ गांव भेज दी | अब पत्नी भी खुश थी और सोहन भी ,उनका आजमाया औजार चल गया था ….||
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जेब कतरे
मैं एक धार्मिक यात्रा के दौरान वापिसी में रात को एक होटल में खाना खाने के लिए बैठा तो सामने के टेबल पर मुझ से पहले बैठा एक दम्पति खाना खा रहा था | छोटा बच्चा टेबल के साथ खड़ा खेल रहा था | दोनों आपस में बातें कर रहे थे |पत्नी बोली –आज अच्छा कमा लिया ,दो हजार बन गये | पति ने मुस्कुराते हुए खाने का कौर अन्दर किया | मैंने उन्हें गौर से देखा_ये वही दम्पति था जिसने रास्ते में मुझसे जेब कटने की बात कह कर घर पहुंचने के लिए कुछ आर्थिक सहायता की प्रार्थना की थी और मैंने उनकी हालत देख कर जेब से तुरंत पांच सौ रूपए निकल कर दे दिए थे | अब मुझे लगा की जेब उनकी नहीं मेरी कट गई थी
| मेरे खाने का स्वाद कसैला हो गया था | उन्हें देख कर मुझे गुस्सा और घिन् आ रही थी ||
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कर्जमुक्त। ( लघुकथा)
धर्मचंद करमचंद से -‘भाई रात पार्टी का खूब आनंद आया ।
हमारे पार्टी के उम्मीदवार खूब खर्चा कर रहे हैं। लाखों रुपए हम सब पर खर्च कर दिए होंगे इन्होंने । रोज दारु और मुर्गे न जाने हजारों रुपए का एक-एक दिन का खर्च आ रहा होगा ।
कल की पार्टी का भी हजारों रुपए खर्च आया होगा । मुझे तो कल होश ही नहीं रहा था कैसे कब घर पहुंचा कोई पता नहीं। गनीमत यह रही कि जब सुबह उठा तो अपने घर में ही अपने बिस्तर पर था।
आज हमें उनके लिए कुछ काम करना होगा । उनके लिए आज वोट मांगने होंगे ताकि हम जो खा पी रहे हैं उसका थोड़ा सा कर्ज उतर जाए । शहर केचौराहे पर जाकर दोनों रैली में शामिल हो गए । भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़े और तभी करमचंद जोर से बोले -नीलू भाई आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं । भीड़ ने मिलकर जोर से नारा लगाया नीलू भाई आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं । फिर नारों की गूंज से शहर का चौराहा गूंजने लगा । अब उन्हें लग रहा था कि उन्होंने रात की पार्टी का ऋण चुका दिया है।
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अपना – पराया [लघुकथा ]
सरकारी स्कूल दारपुर की हिन्दी टीचर नेहा का बेटा अभि शहर के नामी प्राइवेट स्कूल में पढ़ता था | उसकी हिन्दी की टीचर ने उसकी हिन्दी की नोट बुक पिछले दो दिन से चैक नहीं की थी आज नेहा सीधे अपने स्कूल जाने की बजाय बेटे के स्कूल पहुँच गई | बेटे की नोट बुक प्रिंसिपल की मेज पर पटक-पटक कर सवाल-जवाब करने लगी | प्रिंसीपल ने हिन्दी टीचर को दफ्तर में बुलाकर खूब डांट पिलाई नेहा प्रिंसीपल को ऐसे निक्कमे टीचर निकाल कर अच्छा टीचर रखने की सलाह देकर दफ्तर से सीधे अपने स्कूल आ गई | बच्चे अपनी नोट बुक्स लेकर कह रहे थे – ‘मैडम हमारी नोट बुक्स चैक कर लो |’ मैडम ने कहा –‘बच्चो आपकी नोट बुक्स कल चैक कर दूँगी आज मेरा सिर दुःख रहा है | बाहर से गुजरते हुए मैडम वीना ने जैसे ही नेहा से आज देर से आने के बारे पूछा तो वह बिफर पड़ी | उसने वीना को बताया कि वह बेटे के स्कूल गई थी | फिर दोनों टीचर अपने बच्चों के विद्यालय व उनकी पढ़ाई के बारे मे बतियाने लगीं | नेहा ने अपने बेटे के स्कूल में हुए आज के घटनाक्रम को लेकर खूब शेखियां बघारीं | वह कह रही थी आज उसने प्रिंसीपल व उसकी हिन्दी टीचर को खूब बाट लगाई | दोनों टीचर आपसी घरेलु बातों में मशगूल हो गईं | इधर बच्चे अपनी नोट बुक्स के पन्ने पलट रहे थे | पिछले कई दिनों से उनकी नोट बुक्स चैक ही नहीं हुई थीं | अपने टीचर को बातों मे व्यस्त देख धीरे-धीरे क्लास रूम में शोर बढ़ गया था…||
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बदला (लघुकथा)
क्लास में मैडम गीता ने शब्द का उच्चारण अशुद्ध किया तो मैंने टोक दिया | फिर क्या था ? मैडम का पारा मेरे लिए सातवें आसमान पर रहने लगा | फिर मैं साल भर मैडम के मुंह न लगी | यूँ तो मैं स्कूल कैप्टन थी, परन्तु मैडम के लिए जैसे मैं उसकी प्रतिद्वंदी थी | मैडम को जब भी मुझे जलील करने का मौका मिलता वह कभी नहीं चूकती | स्कूल का वार्षिक समारोह हुआ | बच्चों की ओर से मिस फेयरवेल चुना जाना था | बच्चों ने मेरे नाम की पर्ची लिखकर बक्से में डाली थी | मैडम को पर्ची निकालकर नाम अनाउंस करने के लिए कहा | मैडम ने पर्ची निकाल कर अपनी प्रिय स्टूडेंट का नाम अनाउंस कर दिया | सभी बच्चे मैडम को घूर रहे थे | मैडम ने पर्ची फाड़कर फैंक दी थी | और संतुष्ट थी कि उसने बदला ले लिया है | इस बार फिर उसने अशुद्ध उच्चारण किया है मेरे मुंह से अनायास निकल गया ||
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समय के पदचिन्ह (लघुकथा)
अनुभव ने लाला मदन लाल को कहा-” मुझे बढ़िया से जूते दिखाओ ‘।लाला का नौकर उसे जूते दिखाता गया और वह रेंज बढ़ाता गया। कस्बे की इस दुकान पर सबसे महंगे जूते दस हजार तक के ही थे । उसने कहा -‘ इससे महंगे और भी है जूते?” लाला ने इंकार कर दिया। अनुभव ने वे जूते खरीद लिए । पैसे देने के लिए जैसे ही अनुभव लाला मदनलाल के काउंटर पर खड़ा हुआ , लाला मदन लाल ने बिल काटते हुए कहा बेटा आप कहां से हो ? मैंने आपको पहचाना नहीं ? अनुभव बोला – लालाजी मैं धर्मनगर से महू का बेटा हूं । फिर लाला ने पूछा क्या करते हो ? तो वह बोला – मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में साइंटिस्ट हूं ।तब लाला बोला -अच्छा तो आप महू के बेटे हो; महू तो हमारा ही ग्राहक था। अनुभव बोला जी पिताजी आपके ही ग्राहक थे । फिर वह आगे बोला- “शायद आपको याद हो न हो लेकिन मुझे तो आज भी बीस बरस पहले की वह सारी घटना याद है। मैं बीमार था मेरे पिताजी मुझे दवाई लेने बाजार आए थे ।उनके जूते फटे हुए थे । बारिश लगी थी ।बारिश का सारा पानी जूतों में जा रहा था ।मैं उस समय दस वर्ष का था ।वह आपकी दुकान पर आए और आपसे उधार में जूते मांगे । उन जूतों का मूल्य उस समय दस रुपए था । परंतु आपने उधार में जूते देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि यह बहुत महंगे जूते हैं आपकी हैसियत से बाहर हैं । इतने महंगे जूते मैं आपको उधार नहीं दे सकता । आपने दूसरी तरफ रखे हुए जूते दिखाते हुए कहा था कि “आपने लेने ही हैं तो ये दो रुपए वाले ले लो उधार में।” पिताजी को यह बात चुभ गई । वे उन्हीं फटे जूतों में वापिस घर आ गए। जबकि पिताजी आपके पास ही पूरे परिवार के लिए जूते खरीदा करते थे । उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था। फिर वह आगे बोला – ये जूते मैं अपने पापा के लिए ही ले रहा हूं । लालाजी वक्त बदलता रहता है ।यह कहकर वह दुकान से बाहर आ गया । अब समय के पदचिन्ह लाला के मानस पटल पर उभर आए थे । वह निरुत्तर सा होकर अनुभव को तब तक देखता रहा जब तक वह अपनी कार में न बैठ गया ।
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शराफत का फल (लघुकथा)
मदन शाम को अपने घर वापिस आ रहा था। रास्ते में उसे एक खच्चर वाला व्यक्ति मिला ।उसकी दो खच्चरें थी। एक खच्चर खाली थी जबकि दूसरी पर दो खच्चरों का बोझ लदा था। खाली खच्चर मस्त होकर आगे-आगे चल रही थी ।जबकि दूसरी खच्चर बेचारी घिसटते हुए रास्ता तय कर रही थी। मदन ने उनके मालिक से पूछ ही लिया -“भाई यह क्या? एक खच्चर खाली और दूसरी पर दो खच्चरों का बोझ इकट्ठे ?” वह बोला- “बाबूजी यह जो अगली खच्चर है बहुत चंदरी है छट्ट को जानबूझकर गिरा देती है। रास्ते में यह छट्ट को दो बार गिरा चुकी है ।और जब दोबारा अकेले मैं लादने लगता हूं तो यह छट्ट को लादने ही नहीं देती। इसलिए मैंने इसकी छट्ट दूसरी पर लादी है। यह बेचारी बहुत शरीफ है। कभी लात तक नहीं उठाती ।बच्चा भी इसे लाद व उतार सकता है। दो का बोझ भी लाद दो तो भी घिसटती हुई पहुंचा ही देती है। मदन के मस्तिष्क में कभी अपने आवारा भाई का चेहरा तो कभी अपना चेहरा घूम रहा था । उसे अपने और उस दो का बोझ लादे खच्चर में समानता दिखने लगी थी ।खच्चरों के मालिक में उसे अपने बाबूजी का चेहरा दिख रहा था।
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निर्दयी भूख
अभी सुबह हो ही रही थी | सूर्य की लालिमा धरती तक नहीं पहुंची थी | मैं किसी जरुरी कार्य के सिलसिले में बाहर जा रहा था | इसलिए घर से जल्दी निकला था | और बस के इन्तजार में अपने शहर के बस स्टैंड पर खड़ा था | सामने सड़क में कुछ दाने बिखरे थे | कुछ कबूतर उन दानों को चुगने के लिये सड़क में बैठ गये | तभी एक गाड़ी सड़क से गुजरी | बाकि कबूतर तो उड़ गये परन्तु एक कबूतर गाड़ी के नीचे आ गया | सड़क पर खून का एक धब्बा सा उभर आया व पंख इधर-उधर बिखर गये | तभी सामने से एक कुत्ते ने देखा तो वह उसे खाने सड़क की तरफ लपका | अभी वह उस धब्बे को चाटने ही लगा था कि पीछे से एक और तेज गति से आती गाड़ी उसके ऊपर से गुजर गई | मांस के लोथड़े व खून ही खून सड़क पर फैल गया |निर्दयी भूख ने कबूतर और कुत्ते की जान ले ली | मैं सुबह-सुबह यह सारा दृश्य देख अन्दर ही अन्दर रो उठा |
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शब्दों की मार
नगीन के घर गर्मियों में तो मेहमानों का आना-जाना लगा ही रहता है |हर रोज कोई न कोई मेहमान घर में आ ही जाता है | आज भी उसका दोस्त रोहन अपनी पत्नी व बच्चों के साथ उसके घर में रुका था | नगीन का स्वभाव ही था आदमी हों या चाहे कुत्ते-बिल्ले सब के साथ विनम्र रहता, सेवा करता परिणामस्वरूप उसके बरामदे में शाम के समय कुत्तों का भी जमघट लग जाता | पांच-सात कुत्ते तो रोज उसके बरामदे या छत पर टहलते-सोते | अंधेरा उतरने लगा था दो कुत्ते घूम-फिर कर उसके खुले गेट से बरामदे की तरफ बढ़ रहे थे | उसने बरामदे में बैठे देखा और कुत्तों को सम्बोदित करते हुए बोला- ‘अवा परौह्णयों गेट खुल्ला ई है’ | अर्थात मेहमानो आ जाओ गेट खुला है | अन्दर बैठे उसके दोस्त ने ये सुना तो शीशे के बीच से पत्नी को बाहर देखने के लिये कहा | पत्नी ने बाहर देखा-आदमी तो कोई नज़र नहीं आया. परन्तु दो कुत्ते बरामदे की तरफ बढ़ते दिखे | पत्नी ने बताया-मेहमान तो कोई नही है , दो कुत्ते बरामदे की तरफ आयें हैं | और बरामदे में टहल रहें हैं | पति-पत्नी ने एक-दूसरे की आँखों में देखा,पत्नी ने मुंह बिचकाया उन्हें लगा ये शब्द हमारे लिये ही व्यंग्य में कहे गये हैं | उस रात उन्हें नींद नहीं आई | उन्हें लगा वे सही जगह मेहमान बन कर नहीं आये हैं | उधर शब्दों की मार से अनजान नगीन इस सब से अनभिज्ञ दोस्त की सेवा में लगा रहा |
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देशद्रोह (लघुकथा)
पहाड़ों में सर्दियां शुरू होते ही धूप बड़ी मीठी हो जाती है। गुनगुनी धूप का अपना अलग ही मजा होता है ।रोज की भांति आज भी स्कूल लगा । अध्यापकों ने सारे बच्चे कमरों से निकालकर ग्राउंड में बिठा दिए ।अब बच्चे भी गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे । स्टाफ रूम की बनावट कुछ इस तरह थी कि खिड़कियां खुलते ही सीधी धूप कमरे में आ जाती थी । सभी अध्यापकों ने स्टाफ रूम में बैठकर चाय पी । फिर प्लान बना क्यों न आज गलगल की चाट बनाई जाए । अतः पास की दुकान से गलगल मंगवा लिए गए । फिर पुदीने वाले नमक का प्रबंध किया गया और लगभग एक घंटे तक चाट बनाने खाने का दौर चलता रहा ।कोई भी शिक्षक इस दौरान कक्षा में नहीं गया । बच्चे ग्राउंड में धमाचौकड़ी मचाते रहे । इस सरकारी समय में से एक घंटा खाने-पीने में बर्बाद कर दिया गया था । जो बच्चों की पढ़ाई के लिए लगना चाहिए था । उस घंटे के सरकार से वेतन के पैसे मिल रहे थे । अनुभव ने उस दिन अपने आप से पूछा था- क्या यह देशद्रोही नहीं है? अंदर से आवाज आई थी- यह भी एक तरह का देशद्रोह ही है । उसकी अंतरात्मा ने कहा -आपने सरकार से बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे तो ले लिए परंतु आपने इन बच्चों के जीवन का महत्वपूर्ण एक घंटा न पढ़ा कर बर्बाद कर दिया । उसके बाद अनुभव को स्कूल टाइम में ऐसी गतिविधियां देशद्रोह नजर आने लगीं, और अब वह हमेशा ऐसी गतिविधियों से दूर रहने लगा।
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समय का फेर [लघुकथा ]
विमला को गाँव वाले मास्टरनी कह कर बुलाते थे | क्योंकि उसके पति गाँव के सरकारी स्कूल में मास्टर जो थे |गाँव में मास्टरनी को भी मास्टर जी की तरह ही सम्मान प्राप्त था | विगत दो वर्ष पहले गाँव के स्कूल में वार्षिकोत्सव मनाया गया तो कई गणमान्य लोगों के साथ – साथ मास्टरनी भी उस समारोह में मास्टर जी के साथ मुख्यतिथि के साथ बैठी थी | मास्टरजी के साथ उसे भी अन्य लोग बराबर सम्मान देते थे | ये सब उसे भी अच्छा लगता था | वक्त ने करवट बदली ,मास्टरजी की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई | दुखों के पहाड़ के नीचे मास्टरनी दब गई | तीन बच्चों का बोझ और खुद ,चार जनों को उठाने में उसकी पीठ लड़खड़ाने लगी | बड़ी जद्दोजहद के बाद उसे दैनिक भत्ते पर उसी स्कूल में चपड़ासी की नौकरी मिल गई | चूंकि वह आठवीं तक ही पढ़ी थी | कल की मास्टरनी अब चपड़ासिन बन स्कूल जाने लगी | कल तक जो लोग उसे दुआ-सलाम करते थे आज उससे मांगने लगे | उसे अन्दर ही अन्दर ये सब अच्छा न लगता मगर मरता क्या न करता ? बेबसी – लाचारी उसकी नियति थी | बच्चों व खुद का बोझ ढोने के लिए नौकरी जरूरी थी | तीन बरस नौकरी बीत गई | आज फिर स्कूल में वार्षिकोत्सव था | मुख्याध्यापक ने उसे सुबह जल्दी बुलाया था | इसलिए वह निर्धारित समय से पहले स्कूल में पहुँच गई | अभी तक कोई भी स्कूल में नहीं पहुंचा था | आफिस व कमरों की सफाई करके वह स्टाफ रूम में रखी कुर्सी पर आराम के लिए अभी बैठी ही थी तभी स्कूल के तीन चार अध्यापक आ गये | वह कुर्सी से उठने ही वाली थी कि एक ने उसे देख लिया उसे देखते ही वह उसे झिड़कते हुए बोला ,विमला बड़ी बाबू बन कर कुर्सी पर आराम फरमा रही हो ,अपने स्टूल पर बैठा करो | विमला कुर्सी से तो उठ गई थी परन्तु उसे अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती हुई लग रही थी | वह बुझे – बुझे कदमों से सबके लिए पाणी ले आई थी | तीन बरस पहले के वार्षिकोत्सव और इस वार्षिक उत्सव का फर्क उसके मानसपटल से गुजर रहा था |तीन बरस में ही मास्टरनी चपड़ासिन हो गई थी | नियति को स्वीकार कर अब वह खिसकती जमीन पर बुझे कदम लिए सभी आगंतुकों को पानी पिला रही थी , कुर्सियां दे रही थी | ये सब समय का फेर था …..||
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रिवायत…(लघुकथा)
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सरकार की ओर से सरकारी संस्थानों में स्वच्छता सप्ताह मनाने के लिए सरकार के आदेश आए तो आदेश की अनुपालना में संस्थान के प्रभारी ने संस्थान में कार्यरत सभी अधिकारियों – कर्मचारियों को प्रांगण में इकट्ठा करके शपथ दिलवाई । सभी अधिकारियों कर्मचारियों ने वर्ष में सौ घंटे स्वच्छता के लिए कार्य करने और सौ लोगों को स्वच्छता के लिए प्रेरित करने की शपथ ली और सरकारी आदेश की अनुपालना करने की रिवायत निभा दी । फोटो खींचे गए ।प्रभारी महोदय ने संस्थान में शपथ समारोह करवा देने के फोटोज अपने उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट के साथ मेल कर दिए । दूसरे दिन अखबारों में खबर के साथ फोटो भी छपी । कईयों ने अपने अपने फोटो सोशल मीडिया पर भी डाले । कुछ दिनों बाद , संस्थान में पसरी गंदगी पहले जैसी ही थी ,कुछ भी फर्क नहीं पड़ा था ।
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राजनीति लघुकथा
नरेशभान की पार्टी में अच्छी पैठ थी । इसलिए उसने मंत्री से मिलकर कस्बे में कुछ शामलात जमीन थी अपने नाम करवा ली और फिर गांव छोड़कर परिवार सहित कस्बे में बस गया ।और वहीं व्यापार करने लगा । यह 50 वर्ष पहले की बात थी। अब तो उसकी तीसरी पीढ़ी भी जवान हो गई थी और नरेशभान दुनिया को अलविदा भी कह गए थे ।मुड़कर परिवार ने न गांव की ओर देखा न ही गांव की जमीन संभाली । अब उनके हिस्से की वह जमीन झाड़ियों से भरी बंजर घासनियों में तब्दील हो गई थी ।आज नरेशभान के पोते अमित ने जब राजनीति करते हुए किसानों के हक में फेसबुक पर किसान आंदोलन के समर्थन में अपने कस्बे में धरने पर बैठने की बात कही तो कई कमैंट्स आने शुरू हो गए । उनमें एक कमेंट यह भी था कि पहले अपनी पचास साल से पड़ी बंजर जमीन को तो संभालो वहां किसानी तो करो , धरना फिर देना । थोड़ी देर बाद उसने वह कमेंट फेसबुक से हटा दिया था ।।
अशोक दर्द
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सबसे बड़ा इनाम (लघुकथा)
स्कूल के वार्षिक समारोह से घर आते ही बच्चों ने इनाम में मिले अपने अपने स्मृति चिह्न मां को दिखाने शुरू कर दिए । सबसे पहले बड़ी बेटी ने अपने इनाम में मिले स्मृति चिह्न अपने बस्ते से निकाले ,और दिखाने शुरू किये ।उसने साल भर स्कूल की कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया था । इसलिए उसके इनाम भी सबसे ज्यादा थे । फिर मंझले बेटे ने दिखाए । उसने कम प्रतियोगिताओं में भाग लिया था। इसलिए उसके इनाम अपनी बहन से थोड़े कम थे । तभी छोटू जो सबसे छोटा था , अपने बस्ते से एक स्मृति चिह्न निकाल लाया। ।माँ ने पूछा -बेटे आपको यह किस लिए मिला है ? तो छोटू बड़ी मासूमियत से बोला – मम्मा ऑनेस्टी के लिए ।पूरे स्कूल में एक ही इनाम था जो मुझे मिला है । माँ के मुंह से अनायास निकल गया -सबसे बड़ा इनाम । माँ ने तीनों बच्चों को अपने सीने से लगा लिया ।।
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आदमी और कुत्ते [लघुकथा]
सड़क पर उमड़े हुजूम को दो कुत्ते बड़ी गौर से देख रहे थे |लोग जोर – जोर से चिल्ला रहे थे ‘ इन कुत्तों को फांसी पर लटका दो,चौराहे पर खड़ा करके गोली चलाओ , इन कुत्तों को सबक सिखाओ |शायद आज फिर शहर में गैंगरेप की कोई घटना हो गई थी | पहले कुत्ते ने दूसरे को घूरते हुए पूछा –ये लोग हमें गलियां क्यों निकाल रहे हैं |तब दूसरा बोला – लगता है शहर में फिर किसी ने बलात्कार किया है | तब पहला बोला – बलात्कार आदमी ने किया है और ये लोग गलियां हमें निकाल रहे हैं | हम आदमी की तरह इतने गिरे हुए तो नहीं हैं | हम ऐसे नीच काम तो नहीं करते | हम मौसम के अनुसार उम्र का ख्याल रखते हुए ही ये सब करते हैं | फिर ये हमारी जात को गलियां क्यों बक रहे हैं ,हम इनका विरोध करेंगे | और फिर दोनों कुत्ते गुस्से में उस उमड़े हुजूम पर जोर – जोर से भौंकने लग पड़े…||
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प्रश्न लघुकथा
बेटा परीक्षा देने के लिए जैसे ही घर से बाहर निकला आंगन मैं दौड़ती हुई बिल्ली ने उसका रास्ता काट लिया । वह रुक गया और बोला पापा आज बिल्ली ने रास्ता काट लिया । मेरा पेपर शायद अच्छा न हो ।तभी उसके पीछे दौड़ते हुए कुत्ते पर मेरी नजर पड़ी । मैंने कुत्ते को डांटा तो कुत्ता रुक गया। मैंने देखा बिल्ली अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रही थी । बेटा उसे रास्ता काटने के नाम पर कोस रहा था । मुझे लगा मेरी डांटने पर बिल्ली के पीछे भागता कुत्ता तो रुक गया था परंतु लोकमानस के पीछे पीढ़ियों से दौड़ रहे अंधविश्वास आखिर कब रुकेंगे ? रह रह कर मेरे जहन में प्रश्न उठ रहे थे ।।
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राजनीति का गणित(लघुकथा)
विधायक के मंत्री बनते ही प्रधान रौणकी राम ने पत्नी से सलाह की कि– क्यों न मंत्री महोदय को घर में बुलाया जाये और नुवाले [शिव पूजन] का आयोजन उनके हाथों संपन्न करवाया जाए | ‘परन्तु इससे हमें क्या मिलेगा?’ पत्नी ने चेताया | रौणकी राम बोले- तू भी बड़ी भोली है | तुझे राजनीति का गणित नहीं आता | हम भी बिना लाभ के कोई काम नहीं करते | रौणकी राम ने शेखी बघारी | पत्नी चुप हो गयी | प्रधान ने निर्धारित तिथि पर मंत्री जी को नुआले में पधारने के लिए निमन्त्रण दे दिया और साथ में यह भी बता दिया कि मैंने आपके मंत्री बनने के लिए भगवान शिव से मन्नत की थी कि आप जीत कर मंत्री बन गये तो मैं अपने घर में नुआला [शिव पूजन] करवाऊंगा | इसलिए नुआले की सारी रस्म-पूजा आप ही के कर कमलों से सम्पन्न होगी | मंत्री महोदय ने ख़ुशी- ख़ुशी निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और निर्धारित तिथि को अपने लाव- लश्कर के साथ प्रधान के घर पहुँच भी गये | कई विभागों के अधिकारी भी मंत्री जी के साथ थे | उत्सव सम्पन्न हुआ | प्रधान की पहुँच की चर्चा दफ्तर – दफ्तर पहुँच गई | अब उसके सारे काम बिना रुकावट के होने लगे | उसकी रुकी हुई ठेकेदारी चल निकली | घर का कायाकल्प देख अब पत्नी को भी राजनीति का गणित समझ आ गया था |
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विडंबना लघुकथा
विद्यालय में आए नए प्रधानाचार्य की सरपरस्ती में यह पहला वार्षिक उत्सव था । उन्होंने इसी विद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की थी । क्योंकि उनके पिताजी इसी शहर में नौकरी किया करते थे । जिस विद्यालय में उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी कोसी विद्यालय में अब वह प्रधानाचार्य बनकर आए थे । विद्यालय के विद्यार्थी होने के नाते वह वार्षिक उत्सव में कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहे थे । उन्होंने एस एम सी की मीटिंग बुलाई और मुख्य अतिथि किसे बुलाया जाए विषय पर चर्चा की , तो सबने एक स्वर में कहा कि सत्ता पक्ष के जिलाध्यक्ष को मुख्य अतिथि बुलाया जाए ।सबके इस विचार पर अमल करते हुए एस एम सी के प्रधान को मुख्य अतिथि को निमंत्रण देने का कार्य सौंपा गया । निर्धारित तिथि को उत्सव होने जा रहा था । सारे अध्यापक एस एम सी के सदस्य व कुछ बच्चे हार लिए मुख्य अतिथि का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे । जैसे ही मुख्य अतिथि एक बड़ी गाड़ी से उतर कर गेट की तरफ आए प्रधानाचार्य महोदय ने अपने हाथ में लिया गुलदस्ता उन्हें देते हुए स्वागत किया और हाथ में पकड़ा हार मुख्य अतिथि के गले में डाल दिया ।जैसी ही नजरें मिली दोनों एक दूसरे को ऐसे देखने लगे मानो पहचानते हों । तभी वे एक दूसरे को पहचान भी गए । मुख्य अतिथि प्रधानाचार्य का सहपाठी था। जो हमेशा विद्यालय से बाहर रहता था ,और दसवीं भी पास नहीं कर पाया था ।
परंतु वह राजनीति में चमचागिरी के बूते बहुत बड़ा आदमी बन गया था । प्रधानाचार्य कोसमझ नहीं आ रहा था कि यह एक विडंबना है या किस्मत का खेल । कक्षा नवी कक्षा का मॉनिटर रहा विद्यार्थी एक बैंक करने वाले सहपाठी को हार पहनाकर स्वागत में खड़ा था वह कभी खुद को तो कभी जिलाध्यक्ष को देखता ।अब प्रधानाचार्य उसके पीछे पीछे चलते हुए मुख्य अतिथि को मंच तक ले आए ।
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प्रत्युत्तर (लघुकथा)
सुदेश की लड़की राधा मायके आ गई थी ।उसका पति उसे दहेज के लिए ज्यादा ही तंग कर रहा था । लड़की का दुख असहनीय था । अतः वह दामाद की मांग पूरी करने के लिए घर के सारे गहने लेकर सुनार की दुकान पर गया । रघु सुनार मर चुका था । उसका लड़का मोहन दुकान चलाता था । दीवार पर रघु की तस्वीर टंगी थी । सुदेश को तस्वीर देखते ही अतीत की याद आने लगी कि आज से बाईस वर्ष पहले इसी आदमी के पास उसके ससुर ने भी उसकी दहेज की मांग पूरी करने के लिए अपने सारे गहने बेच उसे पच्चीस हजार रूपए दिए थे तथा भविष्य में लड़की को तंग न करने के लिए गिड़गिड़ाया था । आज प्रत्युत्तर में बाईस वर्ष बाद उसे अपनी करनी का फल मिल रहा था । रघु की तस्वीर मानो उसकी दशा पर आज व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए जैसे उसे घूर रही थी।
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आया (लघुकथा)
शकुंतला की भाभी अपनी पड़ोसन हेमा से कह रही थी पांच साल बीत गए इसे यहां रहते हुए न तो इसके मुक़दमे का कुछ हुआ और न ही कहीं दूसरी जगह इसके लिए किसी दूसरे लड़के का प्रबंध हुआ । विवाह के तीसरे दिन बाद यह तो ससुराल से भाग आई थी । कह रही थी मेरा पति नामर्द है । मैं किसी और की रखैल बनकर वहां नहीं रह सकती। शकुंतला के पति ने किया भी तो ऐसा ही था । सुहागरात को ही उसने उसे किसी दूसरे के सुपुर्द करना चाहा था । ताकि समाज में उसकी नाक भी बची रहे और वंशबेल भी खत्म न हो । परंतु यह सब शकुंतला को मंजूर नहीं था और वह जैसे कैसे वहां से भागकर मायके पहुंच गई थी। शकुंतला की भाभी ने बात आगे बढ़ाते हुए हंसकर कहा पांच साल हो गए इस के मुकदमे को कोर्ट में लटके पांच वर्ष और बीत गए तो यह भी बूढ़ी होने लगेगी । फिर इसे कौन ले जाएगा ।फिर हमें उस बुढ़िया( सास की तरफ इशारा करके )के साथ इस बुढ़िया की भी देखभाल करनी पड़ेगी । दोनों ने जोरदार ठहाका लगाया । हेमा ने बात का रुख बदलते हुए कहा दीदी तुम्हें बिना वेतन के अपने बच्चों के लिए आया मिल गई है । आज के इस दौर में बिना वेतन लिए सिर्फ कपड़े रोटी में ही आया भी तो नहीं मिलती। यह कहकर हेमा ने चुटकी ली ।और हेमा की पूरी बातचीत शकुंतला पर्दे के पीछे से सुनी थी । जिस मायके में वह कभी लाडली हुआ करती थी आज उसकी हैसियत एक आया से ज्यादा नहीं थी ।यह सोच कर उसकी आंखों से टप टप आंसू टपक पड़े।
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रिसते फफोले (लघुकथा)
मैंने अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी क्या चुना कि मेरे घरवालों ने मुझे धक्के मार मार कर घर से निकाल दिया ।और अपने दरवाजे मेरे लिए सदा के लिए बंद कर दिए । हम दोनों पढ़े लिखे थे पेट की आग लिए सुदूर शहर की ओर चल दिए । वहां जाकर हमने खूब मेहनत की तो दौलत से हमारी झोलियां भरने लगीं । समय का घोड़ा पंख लगाकर दौड़ता रहा । हमारे घर हम दोनों के प्रेम की निशानी सुमन आ गया था । समय की उड़ान का अगला पड़ाव आया तो हमने सुमन की एडमिशन करवा दी ।वह के जी में पढ़ने शहर के नामी स्कूल में जाने लगा । अच्छे-अच्छे घरों के बच्चे उसके सहपाठी थे । आज सुमन ने मुझसे ऐसा प्रश्न पूछ लिया जिससे मेरे हृदय के फफोले रिस उठे। स्कूल से आते ही आज वह पूछने लगा , मम्मी नानी क्या होती है ? मेरे फ्रेंडस सौरभ और गौरव बोल रहे थे कि हम नानी के घर जाएंगे । पिछले महीने भी हम नानी के घर गए थे । वहां हम खूब मजे करते हैं। नानी हमें कहानियां सुनाती है बढ़िया बढ़िया खाना खिलाती है । हमें बाजार से खिलौने लाकर देती है ।वह आगे बोला -“हम नानी के घर क्यों नहीं जाते ? वह कहां रहती है? हम नानी के घर कब जाएंगे?” मैंने बेटे को झूठी तसल्ली देते हुए कहा-” बेटा जैसे मैं तुम्हारी मम्मी हूं न, वैसे ही मेरी भी मम्मी है ,वह तुम्हारी नानी लगती है । उसका घर बहुत दूर है, बस छुट्टियां पड़ने दो फिर हम भी तुम्हारी नानी के घर जाएंगे और खूब मजे करेंगे ।” सुमन मान गया और बाहर आंगन में खेलने लग पड़ा। मैं अतीत की स्मृतियों में खो गई और मायके के बंद दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गई ।मेरे रिसते फफोलों की वेदना बढ़ गई और आंखों से टप टप आंसू टपक पड़े ।
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अंधेर नगरी (लघुकथा)
धर्म चंद ने ज्ञानचंद से कहा,” यार सरकार ने इस बार कृषि विभाग के दफ्तर में गेहूं का जो बीज बिक्री के लिए भेजा है बहुत अच्छा भी है और सस्ता भी। सरकार सब्सिडी इतनी दे रही है कि बाजार के मूल्य से आधे से भी कम है।”
” मुझे अस्सी किलो बीज चाहिए था परंतु चालीस ही मिला। कृषि अधिकारी बोल रहा था, खत्म हो गया है और मंगवा रहे हैं ।परंतु पता नहीं अब कब आएगा तब तक फसल का समय भी निकल जाएगा।” धर्म चंद ने उदास होते हुए कहा ।
ज्ञानचंद ने मुंह बनाते हुए कहा,” यार मैंने यह फायदा तो पहले ही उठा लिया है पूरे अस्सी किलो ले आया हूं ।” धर्म चंद ने कहा,” ” तुम्हें इतना बीज कृषि अधिकारी ने कैसे दे दिया, तुम्हारी तो इतनी जमीन भी नहीं है तुम इतना बीज क्या करोगे?”
यह सुनकर ज्ञानचंद तपाक से बोला ,”यार कृषि अधिकारी भी अपना यार बेली है ,दे दिया तो ले लिया ।इस गेहूं को धोकर सुखाऊंगा और पिसवा कर आटा बनाऊंगा ,बाजार से आधे रेट पर बढ़िया गेहूं का आटा…।” कहते-कहते उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभर आए थे मानो उसने कोई मोर्चा फतह कर लिया हो।
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कौवे ( लघुकथा)
ठेकेदार धनपत राय का शहर के बाहरी भाग में भवन निर्माण का कार्य चल रहा था। मजदूरों के रहने के लिए सड़क के किनारे त्रिपाल व बांस की झोपड़ियां बना दी गई थीं। मजदूर औरतें औरउनकी जवान लड़कियां झोपड़ियों के बाहर बोरियां बांधकर या साड़ी पकड़कर बारी-बारी नहातीं । धनपत राय को मजदूर औरतों का इस तरह नहाना अच्छा नहीं लगा । उसने उन औरतों को वहां बन चुके दो कमरों के भीतर नहाने धोने के लिए कह दिया। मजदूर औरतें वहां नहाने लगीं। अब उन्हें व्यस्त रास्ते के किनारे साड़ियों की ओट में नहाने से निजात मिल गई थी। ठेकेदार द्वारा दी हुई इस सुविधा के लिए वे मन ही मन उनको धन्यवाद देतीं।
ठेकेदार की लेबर में कुछ मजदूरों में कानाफूसी होने लगी थी । उनका कहना था कि ठेकेदार की कोठी से यह कमरे बिल्कुल साफ साफ दिखाई देते हैं। वहां नहाती औरतें भी कोठी से साफ दिख जाती हैं। ठेकेदार ने इन औरतों और जवान लड़कियों के नंगे जिस्म देखने के लिए इन्हें वहां नहाने की सुविधा दी है । कुछ औरतों ने कमरों में नहाना छोड़ दिया।
यह बात धनपत राय तक भी पहुंची ।अगली सवेर उसने इस बात को फैला रहे दो नेतानुमा मजदूरों को अपनी कोठी बुलाया ।कैसे बुलाया ? मालिक मजदूर बोले -तुम्हारी पत्नियां नए बने कमरों में नहाती हैं। नहीं मालिक हमारी पत्नियां तो यहां हैं ही नहीं ।वे तो गांव में ही हैं । फिर तुम दोनों औरों को मेरे विरुद्ध यह क्यों बताते हो कि मैं उनकी औरतों को नहाते हुए देखता हूं । हम्म.. हम नहीं मालिक । मजदूरों को कोई बात नहीं सूझ रही थी । अरे घबराओ नहीं ।मैंने तो तुम्हें इसलिए बुलाया है कि आज मेरे साथ तुम भी नहाती हुई औरतों को देखने का मजा लो । मजदूरों को धनपत राय उन्हें ऊपर के कमरे की खिड़की के पास ले गया और काफी दूरी पर बन रही इमारत में नहा रही औरतों को निहारने को कहा। मजदूरों ने इधर उधर हो उनको जाकर देखने का बहुत प्रयास किया मगर कुछ दिखाई नहीं दिया। तब धनपत राय बोला – तुम तो कौवे हो , इसलिए तुम्हें हर जगह विष्टा ही नजर आती है ।
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वसंत का आना( लघुकथा)
नंदू रोज शराब पीता था। जो कमाता व शराब में उड़ा देता। शराब पीकर घर में लड़ते झगड़ते व मारपीट करता ।उसका पांच वर्षीय बेटा सोमनाथ डरा सहमा सा ये सब देखता। कई बार उसकी पत्नी बेटे को लेकर रात रात भर लोगों के घरों के पिछवाड़े में छुपकर जान बचाती। पूरा गांव उसके इस नशेड़ी पने से परेशान था। लोग थू थू करते । परंतु उस पर कोई असर न होता। कई बार उसे नशा निवारण केंद्र भी ले जाया गया। परंतु वहां से आते ही वह पुनः शुरू हो जाता ।एक रात वह नशे में टल्ली हो घर लौटते समय रास्ते में सीवरेज के गंदे नाले में गिर गया । रात भर वहउसी में बेहोश पड़ा रहा । सुबह जब उसकी आंख खुली वह होश में आया तो उसने नन्हे से हाथ का स्पर्श महसूस किया ।उसका बेटा सुमन उसे नाले से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था। आसपास खड़े लोग उसकी इस दुर्दशा को देखकर मुस्कुरा रहे थे। बेटे के नन्हे हाथों का स्पर्श पाते ही वह आत्मग्लानि से भर उठा ।उसने अपनी तरफ देख नाले में पड़ा वह मानो गंदगी का ढेर बन गया था ।अपनी दुर्दशा पर लोगों को मुस्कुराते देखा ।उसे पहली बार शर्म महसूस हुई ।उसने मन ही मन प्रण किया कि भविष्य में वह कभी नशा नहीं करेगा । ऐसा नारकीय जीवन कभी नहीं जिएगा ।नाले से निकल वह घर पहुंचा ।पत्नी से क्षमा मांगी। तो उसे लगा कि उसके आंगन में फिर बसंत आ गया था।
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सजा (लघुकथा )
चुनावी दिन थे। कार्यकर्ता घर-घर जाकर मतदाताओं से अपनी पार्टी को वोट देने के लिए संपर्क कर रहे थे। कुछ कार्यकर्ता अपने नेता सहित जब स्कूल अध्यापक रमेश के गांव में पहुंचे तो अचानक आसमान बादलों से भर गया और गरज चमक के साथ भारी वर्षा शुरू हो गई ।पांच छः आदमी रमेश के बरामदे में ही खड़े हो गए । रमेश ने आतिथ्य भाव से उन्हें अंदर बैठा दिया तथा चाय पान करवाया । बाहर ऐसे लग रहा था मानो ये काले घनघोर बादल आज बरसकर पुनः नहीं बरसेंगे । बारिश पल-पल बढ़ रही थी। देखते ही देखते अंधेरा हो गया ।गांव से सड़क बहुत दूर थी। पैदल रास्ता लंबा था । अतः उन सब को रात में मजबूर होकर रमेश के घर में ही रुकना पड़ गया । सुबह वे अगले पड़ाव की ओर चल दिए ।इसी के साथ ही अध्यापक रमेश के घर में उक्त नेता के रुकने व रमेश के आतिथ्य सत्कार की खबर जंगल की आग की तरह दूसरी पार्टी तक पहुंच गई। रमेश को न चाहते हुए भी उक्त नेता की पार्टी के साथ गांठ दिया गया । कुछ दिनों बाद चुनाव हो गए । दूसरी पार्टी सत्ता में आ गई । रमेश को उस नेता को रात अपने घर ठहराने व आतिथ्य सत्कार के जुर्म में दुर्गम क्षेत्र में बतौर सजा स्थानांतरित कर दिया गया
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गर्व (लघुकथा)
मैंने रिक्शा वाले को जाने का इशारा किया तो वह पास आकर रुक गया बोला -“साहब कहां जाना है?” मैंने कहा- “दरबार साहब ;कितने पैसे लोगे ?” “साहब दस रुपए ।”हम दोनों मैं और मेरी पत्नी रिक्शे में बैठ गए । हम दोनों आपस में बातें कर रहे थे । वह सुनता रहा। फिर बोला -“साहब हिमाचल से हो?” मैंने कहा -“हां जी ; आपने कैसे पहचाना?” वह बोला -“इतनी मीठी बोली हिमाचल की ही हो सकती है।” अब रिक्शे पर बैठे मुझे अमृतसर की गलियों की धूप भी महसूस नहीं हो रही थी ।
मेरा सीना उसकी बातें सुनकर गर्व से चौड़ा हो गया था । हिमाचल की निच्छल मधुर बयार मेरे हृदय में जैसे हिलोरें ले रही थी ।
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विज्ञापन का सच (लघुकथा)
“नेहा तेरे बच्चे इतने बड़े हो गए पता भी नहीं चला”, गीता ने बचपन की सहेली मास्टरनी नेहा से मुखातिब होते हुए कहा। बारह तेरह साल के दो बच्चों जिनके कंधों पर बैग लटके हुए थे और साथ में नेहा खड़ी थी, होर्डिंग पर नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था “अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएं “। नेहा ने जवाब दिया -“नहीं यह मेरे बच्चे नहीं हैं।”
“तो फिर ये बच्चे किसके हैं ?”गीता ने फिर सवाल दागा।
नेहा सकपका गई । “ये बच्चे हमारे स्कूल के ही हैं ।”
“तो तुम्हारे बच्चा कहां पढ़ रहे हैं ?”
गीता ने फिर पूछा'” कान्वेंट में “। नेहा की जुबान जैसे लड़खड़ा गई थी। “ओह यार मैंने सोचा ये तुम्हारे बच्चे हैं जो इसी स्कूल में पढ़ रहे हैं ।”गीता ने बात बदलते हुए कहा। होर्डिंग देखकर बच्चे को सरकारी स्कूल में दाखिल करवाने के लिए लाई गीता अपने बच्चे को वापिस ले गई और कान्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया ।
होर्डिंग पर टंगे विज्ञापन का सच बार-बार उसके मानस पटल पर आ जा रहा था।
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दाल – फुलका ( लघुकथा)
आदत के अनुसार शाम के वक्त मैं रोज पार्क में घूमने निकल जाता हूं । वहां कई लोग मिल जाते हैं । कुछ खेलते हुए बच्चे तो कुछ पढ़ते हुए बच्चे । कई अपने हमउम्र मित्र भी इसी बहाने मिल जाते हैं । कल शाम को जब मैं पार्क में घूम रहा था तो मेरे पड़ोस मैं रहने वाले उमेश बाबू का बेटा पार्क में पढ़ रहा था ।
मैंने पूछ लिया बेटा क्या पढ़ रहे हो? बोला -“अंकल कल मेरा हिंदी का एग्जाम है निबंध याद कर रहा हूं”। मैंने कहा -“बेटा कौन सा निबंध याद कर रहे हो? तो वह बोला-” अंकल भारत में फैला भ्रष्टाचार”। मैंने कहा -“ठीक है बेटा शाबाश याद कर लो “।
घूमते घूमते मैं थोड़ी दूर आगे निकला तो मेरा मित्र सुधीर मिल गया । वह मुझे काफी दिनों बाद यहां मिला था। मैंने पूछ लिया-” सुधीर भाई बड़े दिनों बाद दर्शन हुए आजकल कहां रहते हो?”
तो वह बोला-” भाई आजकल मैं यहां से ट्रांसफर हो गया हूं। मैंने कहा-” तभी आप बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिए”।
फिर मैंने पूछ लिया-” आपने खुद ट्रांसफर करवाया है या सरकार ने आपका ट्रांसफर कर दिया ? आप तो सरकार की ही पार्टी के आदमी हो फिर यह ट्रांसफर कैसे ? ”
तब वह बोला -“भाई मैंने अपना ट्रांसफर खुद करवाया है। यहां से लगभग पचास किलोमीटर दूर है मेरा स्टेशन । छोटा सा कस्बा है ।
यहां शहर में जहां मेरी ड्यूटी थी वहां हर हफ्ते कोई न कोई चला रहता था और इन अधिकारियों को या उनके रिश्तेदारों को अटेंड करने में ही मेरा सारा वेतन खर्च हो जाता था । ऊपर से यहां कोई आमदन भी नहीं थी । अब मैं यहां हूं वहां दूरदराज का क्षेत्र है और कोई नहीं आता ।
वहां थोड़े बहुत काम भी चले हुए हैं । इससे मेरा वेतन भी बच जाता है और दाल फुलका भी निकल जाता है ।”
वह एक ही सांस में सब कुछ कह गया था। उधर पार्क में बैठा बच्चा अभी भी निबंध रट रहा था।
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दहेज (लघुकथा)
मैं कई दिनों से उस भिखारी को जो किसी भी एंगल से भिखारी नहीं लगता था परंतु हर हफ्ते दुकान पर भीख मांगने आ जाता था, नोटिस कर रहा था । मुझे उससे चिढ़ होती कि हर हफ्ते आ जाता है मांगने। परंतु अपने संस्कारों के कारण मैं उसे अपने दरवाजे से खाली नहीं भेजता । कुछ सिक्के उसके बर्तन में जरूर डाल ही देता । लगभग दो महीने के बाद मैंने उससे पूछ ही लिया “पूरे शहर में आप भीख मांगते हो और अब तक तो आपने काफी पैसे जोड़ लिए होंगे । इन पैसों का आप क्या करोगे ?”उसने लंबी सांस भरते हुए कहा -“बेटी की शादी “। मेरे पास अब पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
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हुनर (लघुकथा)
नेता जगत प्रसाद जी गांवों में बड़े मशहूर थे । गांव के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग तो उन्हें अपने कुनबे का ही व्यक्ति मानते थे । क्योंकि वे उनके परिवार के साथ साथ उनके ढोर डंगरों तक की खबर जो रखते थे।
नेताजी जब भी गांव के दौरे पर निकलते तो कुछ चमचा किस्म के लोग नेताजी अपने साथ रखते ,जो उन्हीं गांवों के होते।
नेताजी गांव में पहुंचने से पहले ही होमवर्क कर लेते । साथ चलते व्यक्ति से जो उसी गांव का होता हर घर की खबर ले लेते ।
यहां तक कि उस परिवार के ढोर डंगरों तक की भी जानकारी ले लेते।
गांव में पहुंचते ही नेताजी जब लोगों को उनके नाम से बुलाते और उनके बहुओं- बेटों- बेटियों के बारे में नाम ले लेकर पूछते ; फिर ढोर- डंगरों की खबर लेते कि काले रंग की भैंस या भूरे रंग की भैंस आजकल दूध दे रही है या नहीं ? बैलों तक की बात बिना पूछे मुखिया से करते तो मुखिया क्या पूरा परिवार नेताजी के इस तरह उनके परिवार के साथ जुड़े होने की बात जानकर अपनी सारी कठिनाइयों को भूलकर नेताजी को सिर आंखों पर बिठा लेते।
नेताजी की जमीन से जुड़े होने की खबर दूर दूर तक जाती और इसी हुनर के बूते वह हर बार चुनाव जीत जाते।
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घर का सुख (लघुकथा)
स्कूल के बगल में आर्मी का ट्रांजिट कैंप होने के कारण आते- जाते फौजी वहां रुकते।
घर से आते फौजी ने स्कूल के बरामदे में अपना पिट्ठू व राइफल एक तरफ टिकाते हुए चढ़ाई के कारण चेहरे पर आया पसीना पौंछा और फिर मास्टर रामदास की ओर मुखातिब होते हुए बोला-
” मास्टरजी तीन-तीन महीने पहले अर्जी लगाने के बाद जब छुट्टी मिलती है तो बिना रिजर्वेशन के तीन-तीन दिन का सफर ट्रेन में खड़े खड़े कर देते हैं ,फिर भी कोई थकान नहीं होती ।
परंतु वापसी में रिजर्वेशन के बावजूद स्टेशन पर पहुंचते-पहुंचते शरीर टूटने लगता है ।” उसके चेहरे पर फिर उभर आईं पसीने की बूंदें मानो उसकी अनुभूति की गवाही दे रही थीं ।
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पाखंड (लघुकथा)
आज सावन का आखिरी सोमवार था । राधिका व्रत पूजन के पश्चात गाय पूजन के लिए रोटी अपने साथ वर्क प्लेस पर ही ले आई थी। उसके आफिस के पास ही एक गौशाला थी । वह अपना सामान ऑफिस में रखकर सीधी गौशाला पहुंच गई । उसने बैग से रोटियां निकालीं और छोटे-छोटे कौर करके गाय के मुंह में देने लगी। तभी उसके कानों में आवाज आई -“बहू कल शाम को मैं भूखी ही रही, क्योंकि तकलीफ ज्यादा हो गई थी और रोटी नहीं बना पाई ।”
यह आवाज उसकी अपनी बूढ़ी सास की थी । जिसके तीन पुत्र तीन बहुएं होने के बावजूद भी घर में अकेली रह रही थी। पिछले एक साल से पैरालाइज से ग्रस्त होते हुए भी घर में खुद रोटी बनाकर खाती थी ।
क्योंकि सभी बेटों बहुओं ने शहरों में कमरे लेकर रहना शुरू कर दिया था।
राधिका ने कानों में गूंजती उस आवाज को अनसुना कर दिया । अपनी मन्नतों की पिटारी खोलते हुए वह गाय के चरण छूने लगी।
तभी फिर आवाज आई -” बहू कभी आप घर आकर मुझसे भी आशीर्वाद ले लेते। मैं तो आपके पति की मां और आपकी सासू मां हूं । आपकी बुजुर्ग हूं और बुजुर्ग तो देवताओं से भी बढ़कर होते हैं ।”
अबकी बार वह बूढ़ी सास की आवाज कानों में गूंजते ही चिढ़ से भर गई।
भीतर ही भीतर बुदबुदाते हुए उसने फिर उस आवाज को अनसुना कर दिया और गाय के चरण छूकर
जल्दी-जल्दीऑफिस की ओर चल दी।
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भ्रष्टाचार (लघुकथा)
मोहन रोज घर से कार्यालय तक का लगभग बीस किलोमीटर का सफर बस द्वारा तय करता था ।
पिछले दो सालों से वह एक ही बस में सफर कर रहा था । यही बस उसे सुबह कार्यालय के लिए शूट भी करती थी।
बस का किराया बीस रुपए था ।
परंतु कंडक्टरों के साथ परिचय होने के कारण और रोज की सवारी होने के कारण वह दस रुपए में काम चला लेता था।
आज जब वह बस में चढ़ा तो कंडक्टर नया था ।
बस कंडक्टर ने मोहन से बीस रुपए मांगे तो मोहन को कुछ अटपटा लगा ।उसने कहा -“भाई साहब मैं रोज दस रुपए में सफर करता हूं। पिछले दो साल से इसी बस में आता जाता हूं।”
कंडक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा-” सर बीस रुपए ही लगेंगे।”
बीस रुपए सुनते ही मोहन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने जेब से बीस रुपए निकालकर कंडक्टर को थमा दिए।
कंडक्टर ने पैसे थैले में डाले और दूसरी टिकटें काटने में लग गया । उसने उसे टिकट नहीं दिया ।
मोहन ने साथ बैठी सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झड़ना शुरू कर दिया।
थोड़ी देर बाद जब कंडक्टर टिकट काटकर वापस आया तो उसने उसे बड़े रौब से कहा-“भाई पैसे तो बीस रुपए ले लिए टिकट भी दे दो ।”
मोहन के चेहरे पर आए हुए गुस्से को भांपते हुए कंडक्टर ने टिकट की जगह दस रुपए मोहन के हाथ पर रख दिए।
मोहन के चेहरे का रंग एकदम बदल गया ।
थोड़ी देर पहले जो साथ वाली सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झाड़ रहा था ,अब उसके भाषण का टॉपिक बदल गया था ।
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शब्दों के घाव (लघुकथा)38
रामेश्वर अपनी दुकान पर बैठा था कि हरमीत दोपहर को उसकी दुकान पर आ धमका।
वह उसका सहपाठी रहा था । लगभग तीस साल पहले दोनों का बचपन एक ही मोहल्ले में गुजरा था और एक ही स्कूल में दोनों पढ़े भी थे ।
समय ने करवट बदली तो दोनों अपनी-अपनी दुनिया में रम गए । रामेश्वर बिजनेस में आ गया और हरमीत नौकरी में चला गया।
जब कभी वह शहर आता तो जरूर रामेश्वर की दुकान पर आता उससे मिलने ।
आज उसने खूब शराब पी रखी थी …।
लग रहा था वह होश में नहीं है। वह आकर रामेश्वर को बोलने लगा- ” यार रामू मैं पुरी मास्टर को ढूंढ रहा हूं जो मुझे कहता था की तू कुछ नहीं बन सकता।
मैं दसवीं पास एयर फोर्स में हूं और साठ हजार रुपए तनख्वाह लेता हूं…. ।
मैं सोचता हूं कि मुझे एक बार पुरी मास्टर मिल तो जाए जो मुझे कहता था कि तू कुछ नहीं बन सकता ।”
यह कहता हुआ वह नशे में लड़खड़ाता हुआ दुकान से बाहर निकल गया…. ।
उसके बाल मन में अंकित मास्टर की वह क्रूर तस्वीर व चुभती हुई बातें तीस सालों बाद भी नहीं निकलीं थीं , मानो शब्दों के वे घाव अभी तक भी भरे नहीं थे।
रामेश्वर के ज़हन में बड़ी देर तक हरमीत के अवचेतन से निकली बातें कौंधती रहीं ।
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बदलता समय [लघुकथा ]
आज नेता जी फिर हमारे गाँव आ रहे थे | दस बर्ष के अंतराल बाद |पहली बार वह तब आये थे जब उनकी जीत हुई थी और इस क्षेत्र से भरपूर वोट मिले थे | दूसरी बार वह हार गये थे | अब तीसरी बार के चुनाव में जीत गये थे और मौका था एक कमरे के उद्घाटन का | यद्यपि यह कमरा पिछली सरकार ने बनवाया था परन्तु उद्घाटन नहीं कर पाई थी | चुनावों के बाद इस उद्घाटन के कार्य को यह नेता जी पूरा कर रहे थे | पिछली बार दस वर्ष पहले जब वह यहाँ आये थे तब बड़े जोर-शोर से उनके लिए और उनकी सरकार के लिए नारे लगे थे | फूलों के हारों से उनका गला सिर तक भर गया था | सलाम बजाने वालों की लंबी कतार लगी थी | लोगों ने उनके आश्वासनों पर खूब तालियाँ बजाई थीं |यह सारा दृश्य अब तक उनके जहां में जिन्दा था | अब की बार भी नेता जी की ऐसी ही अपेक्षा थी | मगर गाड़ी से उतरते ही उनके गले में थोड़े से हार डले , नारेबाजी भी कम ही हुई तो नेता जी एक आदमी के कान में फुसफुसाये,बोले – नारे तो लगाओ | फिर थोड़े से लोगों ने फिर से थोड़े – बहुत नारे लगाये | काफिला रास्ते में चलता हुआ आगे बढ़ रहा था | उद्घाटन वाले कमरे तक पहुंचने के लिए अभी कोई आधा किलो मीटर रास्ता बचा था तभी नेता जी ने देखा – चालीस – पचास युवा रास्ते में बैठे उनका इंतजार कर रहे हैं | ये देखकर नेता जी खुश हुए |सोचा ये सब मेरे स्वागत के लिए बैठे हैं |देखते ही देखते युवाओं ने रास्ता रोक लिया | नेता जी सहम गये | युवाओं की तरफ से विगत दस वर्षों के निरुत्तर प्रश्नों की बौछार नेता जी पर होने लगी | नेताजी के पास इस बौछार का कोई सटीक जबाब नहीं था | वह घबरा गये | बोले , इन्हें रास्ते से हटाओ |पुलिस उनपर टूट पड़ी | उसने युवाओं को तितर – बितर कर दिया | कुछ पल पहले नेता जी ने नारों के लिए खुद कहा था , अब स्वतः ही पूरी घाटी नारेबाजी से गूँज उठी थी ,परन्तु ये नारे जिन्दावाद के नहीं अपितु मुर्दावाद के थे | नेता जी बच् – बचाकर सुरक्षित जगह पहुँचाए गये | नेता जी को लगा समय बदल गया है | अब युवाओं को झूठे आश्वासनों से बरगलाने का समय नहीं रहा है ||
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अक्स के रूप (लघुकथा)
कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षों में मैं बहुत मेहनत करता। बच्चों के साथ मेरे बहुत ही आत्मीय संबंध थे। जरूरतमंद बच्चों की मैं हर संभव सहायता करता । धीरे-धीरे नौकरी बढ़ती गई और उम्र भी । अब न तो पहले जैसा जोश रहा न ही बच्चों के साथ वैसी आत्मीयता।
सब कुछ एक सामान्य कार्य होता चला गया। फिर सेवानिवृत्ति भी हो गई ।
एक दिन अचानक बीमार हो गया तो मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। शाम के समय एक व्यक्ति मेरे पास आया, मेरे पैर छुए और बताया कि मैं आपका विद्यार्थी रहा हूं ।
फिर उसने अपना पूरा परिचय दिया । मैंने भी घर में सब के बारे में कुशलक्षेम पूछा । वह इसी अस्पताल में कार्यरत था ।
यह मेरे कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षों का विद्यार्थी था ।वह रोज मेरा हाल-चाल पूछने आता और मेरे लिए अपने घर से कुछ न कुछ अवश्य ले आता ।
कभी फल, कभी जूस, कभी दलिया। एक लड़का और मेरे पास आता । वह भी इसी अस्पताल का कर्मचारी था ।उसने भी बताया कि वह भी मेरा विद्यार्थी रहा है। यह मेरे अध्यापन के अंतिम वर्षों का विद्यार्थी था ।
वह भी कभी कभार मेरे पास आता मेरा हाल-चाल पूछता और चला जाता।
मैंने पाया उसके व्यवहार में वह आत्मीयता व प्रेम की गर्माहट नहीं थी जो दूसरे में थी ।महज़ औपचारिकता थी।
मैं अपने अध्यापन का अक्स इन दोनों विद्यार्थियों के व्यवहार में देख रहा था ।
वर्षों बाद आज मेरे अध्यापन का प्रतिफल दोनों विद्यार्थियों के रूप में मेरे समक्ष था।
41
अपने-अपने सुख(लघुकथा )
जब सर्दी आती है बारिश और बर्फ का दौर शुरू होता है, उससे पहले ही मेरे पड़ोसी सुक्खु का पूरा परिवार नीचे मैदानी इलाकों की ओर चल देता है । क्योंकि बर्फ के मौसम में यहां उसकी दिहाड़ी नहीं लगती सारा परिवार बेरोजगार हो जाता है। उसका कच्चा टपरू(घर) चूने लगता है और अंदर उठना बैठना सोना मुश्किल हो जाता है ।
प्लास्टिक के जूते में बर्फ घुस आती है ।बिना मौजों के जूते में काम नहीं होता। गर्म कपड़े कम पड़ जाते हैं और भूखों मरने की नौबत आ जाती है।
इसलिए उसे बर्फ का गिरना आफत लगता है। इसी कारण वह इस बर्फ के मौसम को जरा भी पसंद नहीं करता और उससे पिंड छुड़ाकर नीचे मैदानों की ओर भाग जाता है।
वहां उसकी रोजी-रोटी चलती रहती है और उसके कटे-फटे जूते में बर्फ के घुसने का डर भी नहीं होता , तथा उसके थोड़े से गर्म कपड़ों से काम चल जाता है ।
दूसरी तरफ मेरे एक मित्र हैं । मैदानी इलाके में रहते हैं। बहुत बड़ा कारोबार है वह गर्म मौजे और बड़े-बड़े गर्म जूते व जैकेट पहन कर बर्फ में ठखेलियों के शौकीन हैं।
बर्फ का गिरना उन्हें बहुत अच्छा लगता है । गिरती हुई बर्फ का वीडियो बनाना उनका शौक है ।
अतः दिसंबर जनवरी में हमारे यहां जब भी बारिश या बर्फ का माहौल बनता है मुझे उन्हें सूचित करना पड़ता है। यूं भी वह खुद फोन पर बर्फ की सूचना लेते रहते हैं।
बर्फ गिरते ही वह यहां पहुंच जाते हैं अपने लाव लश्कर के साथ और होटल में रहकर बर्फ का पूरा लुत्फ उठाते हैं ।
बर्फ का गिरना उनके लिए नियामत है ।जबकि यही बर्फ का गिरना सुक्खु के लिए आफत होती है। सचमुच इस संसार में सबके अपने-अपने सुख हैं।
प्रभाव ( लघुकथा )42
जब भी रोहित की मां को घर का काम करना होता तो वह नन्हे रोहित को बिस्तर पर बैठकर टी वी लगा देती और अपना घर का काम निपटा लेती । कार्टून,रेसलिंग व फिल्में वह बड़ी गौर से देखता ।
रोहित टी वी को देखते हुए बड़ा हो रहा था। बेटे को संभालने के लिए मां को टी वी एक अच्छा माध्यम मिल गया था । इसी तरह रोहित पांच वर्ष का हो गया ।
अब वह खुद ही टी वी लगाकर उसके सामने बैठ जाता था। एक दिन रोहित टी वी देख रहा था और सोफे पर उछल रहा था ।
फिल्म में हीरो विलेन को पटक-पट कर पीट रहा था ।जैसी ही दनादन गोलियां चलतीं वह और खुश होता और उछलता। उछलते हुए वह साथ बैठे पापा को देखकर बोला-” मैं भी बड़ा होकर मनु शीरू और तनु को गोलियों से उड़ा दूंगा ।”
पापा बोले- ” क्यों बेटे?” तब वह बाल सुलभ मासूमियत से बोला-” पापा वे मुझे आपका नाम ले लेकर बार-बार चढ़ाते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आता है। मैं उन्हें ऐसे ही उड़ा दूंगा ।”
पापा ने कहा-” नहीं बेटे ऐसा नहीं करते । पुलिस पकड़ लेती है और जेल में डाल देती है।” तब वह बोला -“यह तो इतनी गोलियां चलाते हैं पुलिस इन्हें क्यों नहीं पकड़ती?”
बेटे की यह बात सुनकर वह सुन्न हो गया। उसे यह उम्मीद नहीं थी कि घर में रखा यह उपकरण उसकी अगली पीढ़ी की मानसिकता को इस तरह अपने प्रभाव में ले लेगा ।
ताना बन गया प्रेरणा (लघुकथा)43
नवमी की कक्षा का गणित का पीरियड था ।सामने ब्लैक बोर्ड पर टीचर ने सवाल लिखा और जगतार को खड़ा करके हल करने को कहा-“जगतार आओ इस सवाल को हल करो।”
जगतार पढ़ने में कमजोर था । वह उठा और ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल करने लगा। उसने दो जमा दो पांच लिख दिए। बीच से बच्चे बोल उठे -“सर इसने दो जमा दो पांच लिख दिए हैं।”
फिर सब बच्चे जोर से हंस पड़े। टीचर के मुंह से एकदम निकल गया -“कोई बात नहीं इसने भी बकरे ही काटने हैं लिखने दो दो जमा दो पांच।”
सभी बच्चे खिलखिलाकर जोर से हंस पड़े। टीचर ने उसे बैठने के लिए कहा और दूसरे बच्चे को ब्लैक बोर्ड पर बुला लिया।
टीचर की बात सीसे की तरह जगतार को अंदर तक चीरती चली गई । चूंकि वह एक कसाई का बेटा था ।इसी समय उस ने प्रण कर लिया-” मैं इन्हें पढ़ कर दिखाऊंगा।”
और फिर जगतार पढ़ाई में इस तरह रमा कि दसवीं में उसने प्रदेश के मेधावी छात्रों में अपनी जगह बना ली। वह मेरिट में पास हो गया। मेरिट के आधार पर उसे एम बी बी एस में सीट मिल गई और वह डॉक्टर बन गया।
डॉक्टर बनते ही वह गणित के टीचर इकबाल के पास पहुंच गया । पैर छुए तो टीचर ने कहा -“मैंने आपको पहचाना नहीं?”
तब वह बोला – “सर मैं आपका स्टूडेंट वही करतार कसाई का बेटा जगतार जिसने दो जमा दो पांच लिखे थे ….।”
वह बोलकर चुप हो गया ।
फिर बोला-” सर मैं आपकी प्रेरणा से डॉक्टर बन गया हूं….।”
इकबाल से कुछ बोलते नहीं बन रहा था । उसे अपना कहा याद आ गया था । उसे लगा उसकी जुबान से फिसले शब्दों के तीखे तीरों ने आज उसे ही बिंध दिया है । वह इतना ही बोल पाया-” खूब तरक्की करो बेटा।”
बदलते दृश्य (लघुकथा)44
समय कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता ।
दोनों भाई जो छोटे-छोटे कभी साथ साथ खेला पढ़ा करते थे बड़े हुए और जुदा हो गए। पता ही नहीं चला आज दिवाली का त्यौहार था ।
दोनों त्यौहार मनाने अपने परिवार के साथ अपने नौकरी वाले शहरों से एक बार फिर घर में इकट्ठा हुए ।
अबकी बार की दिवाली में मां-बापू साथ नहीं थे ।
दोनों भाई अपने घर बरसों बाद अपने अपने परिवार सहित इक्कट्ठे दिवाली मना रहे थे ।
घर में मिठाइयां व पकवान मेज पर सज गए । बातों ही बातों दोनों में मां बापू का जिक्र चल पड़ा ।
और फिर ….,
मां का उस दिवाली को मिठाई की जगह मुट्ठी भर चीनी देना और बापू का त्यौहार के दिन गुमसुम हो जाना क्योंकि ठेकेदार ने उस दिन पैसे नहीं दिए थे का जिक्र छिड़ा तो दोनों भाइयों की आंखों में बचपन का वह दृश्य उभर आया और आंसुओं के दरिया बह निकले। बात कुछ यूं थी कि दिवाली का त्यौहार था और बापू को ठेकेदार ने मजदूरी नहीं दी थी ।
वह खाली हाथ ही शाम को घर लौट आया था। मां ने देखा बापू का बैग खाली था । मां ने खाने के बाद मिठाई की जगह दोनों बेटों की मुट्ठियां चीनी से भर दीं तो बच्चे चीनी खाकर ही खुश हो गए ।चीनी की मिठास से उनका तन मन मीठा हो गया और दोनों मां से लिपट कर सो गए ।
आज इस जिक्र के साथ ही दोनों भाइयों की आंखों से एक बार फिर आंसुओं के दरिया बह निकले थे।
दोनों की पत्नियां व बच्चे देख रहे थे । उन्हें उन दोनों की बात समझ नहीं आई थी। इससे पहले की उनकी पत्नियां व बच्चे उनकी बात को समझते दोनों ने अतीत की इस स्मृति को झटक कर अपनी आंखें पोंछ लीं । अब दृश्य बदल गया था अब हंसता बतियाता पूरा परिवार डायनिंग टेबल पर अपने अपने खाने में व्यस्त हो गया था ।
अपने अपने स्वार्थ. ( लघुकथा)45
अपनी भेड़ों की रखवाली के लिए गड़रिये ने एक कुत्ता पाल रखा था नाम रखा था शेरू।
इतना हट्टा कट्टा था कि सचमुच शेर जैसा लगता स्वामीभक्त शेरू अपने मालिक की भेड़ों की रखवाली बड़ी ईमानदारी से करता ।
वह दिन भर गड़रिये के साथ-साथ जंगल में भेड़ों के झुंड की रखवाली करता और भेड़ें जब शाम को वापस आ जातीं तो फिर पूरी रात जाग जाग कर बाड़े के इर्द-गिर्द घूमता हुआ भौंकता रहता। ताकि कोई जंगली जानवर या चोर आदि बाड़े की ओर न आ सके।
इस स्वामीभक्ति के बदले उसे भरपेट रोटी मिल जाती ।
पहाड़ों पर सर्दियां आते ही गडरिया जब अपनी भेड़ें लेकर मैदानी क्षेत्र की ओर चला जाता तब शेरू भी उसके साथ-साथ चला जाता ।
इस बार जब वह जा रहा था तो रास्ते में किसी गाड़ी वाले ने शेरू को टक्कर मार दी । शेरू लहू लुहान होकर सड़क पर गिर पड़ा। गड़रिये ने उसे उठाया और किनारे पर रखा।
देखा तो शेरू जख्मों के कारण चल पाने में असमर्थ था ।
अब गड़रिया उसे उठाकर अपने साथ नहीं ले जा सकता था। क्योंकि उसके पास सोने व खाने-पीने के समान का भारी बोझ पहले ही था । और न ही वह उसके लिए भेड़ों को वहां रोके रख सकता था ।
यह उसकी अपनी मजबूरी थी ।अत: वह शेरू को वहीं कराहता हुआ छोड़कर चल दिया। शाम को एक किसान ने वह सुंदर हट्टा कट्टा घायल कुत्ता देखा तो स्वार्थवश उसे उठाकर अपने घर ले आया ताकि वह स्वस्थ होकर उसके घर व खेतों की रखवाली कर सके।
उस किसान ने कुछ दिनों तक उसकी मरहम पट्टी की तो वह ठीक हो गया। अब शेरू पेट के लिए दो रोटियों के बदले उस किसान के यहां भौंक भौंकर अपनी स्वामीभक्ति प्रदर्शित करता है।
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भूख का धर्म (लघुकथा)
चौराहे पर मेरे सामने क्रमशः आठ – दस वर्ष के दो लड़के अपनी हरी चादर पसारे खड़े हो गए ।
किसी पीर बाबा का नाम लेकर फैलाई चादर को बार-बार आगे करने लगे ।
मैंने जेब से दो सिक्के निकाले और चादर में डाल दिए ।
इन्हें पैसे देते देखकर एक छोटी सी लड़की न जाने कहां से मेरे सामने आ गई।
उसने हाथ में दुर्गा माता की छोटी सी फोटो थाली में सजाई थी ।वह भी उसमें कुछ डालने की जिद करने लगी। मैंने एक सिक्का जेब से निकाल कर उसकी थाली में रख दिया। बच्चों के चेहरों पर खुशी तिर आई थी ।
फिर वे दूसरे लोगों से मांगने में व्यस्त हो गए। मुझे पैसे देते देख बगल में खड़ा व्यक्ति बोला -“भाई साहब यह तीनों बच्चे बहन भाई हैं ,इनका बापू अपाहिज है और मां अंधी । मेरे मोहल्ले के बगल में नाले पर बने पुल के नीचे झुग्गी में कई सालों से रह रहे हैं। पता नहीं किस धर्म के हैं ।भाई मुसलमान तो बहन हिंदू बनी हुई है।”
उसकी बात सुनकर मेरे मुंह से अचानक निकल गया-” भाई साहब भूख कोई धर्म नहीं होता ।”
मेरा उत्तर सुनकर उसने कोई जवाब नहीं दिया।
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युग- सत्य (लघुकथा )
बंदर बस्ती में आया तो कुत्ता बंदर को देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा । बंदर ने देखा और बोला -“अबे क्यों भौंक रहा है ? तुम्हारे मालिक ने खेतों में फसल बीजना छोड़ दिया है तभी तो हमें बस्तियों में आना पड़ रहा है ।
जब तुम्हारा मालिक फसल बीजता था तब हमें भी तो वहां से कुछ खाने को मिल ही जाता था , और तुम्हें भी तो खेतों की रखवाली के बदले दाल – फुलका मिल जाता था।
अब तुम्हारे मालिक ने खेत बीजना ही छोड़ दिया तो तू भी तो उसके लिए अब बेकार हो गया है।
इसलिए अब वह तुझे भी दाल -फुलका नहीं खिलाना चाहता।
क्योंकि उसे अब खेतों की रखवाली के लिए तो तेरी जरूरत ही नहीं रही।
अब तुझे भी तो उसने घर से निकाल दिया है। तेरा भी तो दाल फुलका बंद हो गया है ।”
दोनों की बातचीत सुनने के लिए और कुत्ते इकट्ठे हो गए थे। कुत्तों का झुंड बंदर की बातें ध्यान से सुन रहा था। बंदर ने आगे कहा-” वह जमाना गया जब हमारे झुंड के लिए एक कुत्ता ही काफी होता था ।अब तो तुम्हारे झुंड के लिए मुझ जैसा एक बंदर ही काफी है।”
कुत्तों ने हां में गर्दन हिलाई।
बंदर ने कहा-” चलो आज के बाद हम दोस्त बन जाते हैं।” कुत्तों ने दोस्ती की हामी भरते हुए अपनी-अपनी पूंछ हिलाई। कुत्ते बंदर को सुनकर चले गए। बंदर छलांगें मारता हुआ पूरी बस्ती में उधम मचाता रहा। अब दोनों की दुश्मनी दोस्ती में जो बदल गई थी।
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खेल-खेल में
एक पहाड़ी मंदिर की यात्रा के दौरान हम रास्ते में विश्राम हुआ जलपान के लिए जलपान गिरी के प्रांगण में रुके और खा पीकर आगे मंजिल की ओर बढ़ जाते यात्रियों द्वारा फेंकी बच्ची कोच्चि खाद्य वस्तुओं को वहां मौजूद वानर झुंड भी खा पी रहा था तभी मेरी बेटी ने बेटे को संबोधित करते हुए कहा देखो बंदर डस्टबिन से मिनरल वाटर की बोतल निकाल कर बच्चे पानी को कैसे पी रहा है बिल्कुल आदमी की तरह इस सब ने उसकी तरफ देखा तभी बंदर ने बोतल के सारे बच्चे पानी को पीकर बोतल को डस्टबिन के बाहर फेंक दिया तब मैं बच्चों को समझाते हुए कहा देखो आदमी और बंदर जानी जानवर में यही बुनियादी फर्क है आदमी ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए बोतल डस्टबिन में फेंकी थी ताकि गंदगी ना पहले परंतु बंदर ने वही बोतल निकाल कर बच्चा पानी पिया और बोतल बाहर फेंक दी इस विवेक हैं बेचारे को क्या पता की बोतल बाहर फेंकने से गंदगी फैलेगी यह कहकर मैंने अपनी बात समाप्त की ही थी कि तभी हमारे सामने की बेंच पर बैठे जोड़ने चिप्स के पैकेट को खाली कर डस्टबिन में डालने के बजाय भारी फेंक दिया यह देख बेटा झट से बोल पड़ा पापा इन्होंने भी लिफाफा बाहर फेंका है यह कौन हुए आदमी या कीमैंने बेटे को धीरे बोलने के लिए इशारा किया तथा फिर समझती हो कहां बेटा जो आदमी आदमी होकर भी पशुता भरे कार्य करें उसे पशु ही समझना चाहिए शुभम फिर बोल पड़ा फिर तो यह बंदर हुए ना मैंने उसे डांटा और ऐसे शब्द ना खाने के लिए कहा दोनों बच्चे उठकर दूरबींच पर जा बैठे और उनका खेल शुरू हो गया अब आते-जाते जो लोग पानी की खाली बोतल या लिफाफे इत्यादि 10 मिनट में डाल देते बच्चे उन्हें आदमियों में जिन लेते और जो अगल-बगल फेंक देते उन्हें बंदरों में जिन लेते विश्राम के 1 घंटे में बच्चों ने अपने इस मोड़ खेल-खेल में कई आदमी और कई बंदर जिन लिए थे।
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नेवर गिव अप(लघुकथा)
रमन पिछले तीन साल से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर
रहा था ।परंतु हर बार वह असफल हो जाता।।
हताशा में एक दिन वह रेल की पटरी पर जाकर खड़ा हो गया। आज उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि अब वह मुड़कर घर जाकर अपना मुंह नहीं दिखाएगा।
अभी ट्रेन आने में समय था। उसका मन अचानक अपने गांव के स्कूल मैं पहुंच गया
जिसके गेट पर लिखा रहता था “नेवर गिव अप ।”
जब वह छोटी क्लासों में था तब उसे इसका अर्थ समझ नहीं आता था । जब वह बड़ी क्लास में पहुंचा तो एक दिन उसने गुरु जी से पूछ ही लिया -“गुरुजी नेवर गिव अप” जो लिखा है गेट पर , इसका क्या अर्थ होता है ?”
तब गुरुजी ने उसे समझाते हुए कहा-“बेटे इसका अर्थ होता है कभी हार नहीं मानना।
जीवन में बड़ी से बड़ी कठिनाई आ जाए परंतु व्यक्ति को हार नहीं माननी चाहिए ।
अगर परमात्मा एक दरवाजा बंद करता है तो दस दरवाजे और खोल देता है ।”
गुरु जी की कही हुई बात उसके बालमन में अंकित हो गई थी।
आज गुरु जी की कही वही बात उसके ज़हन में फिर कौंधी । उसे लगा जैसे गुरु जी ने आज फिर उसे वही बात उसके कान में आकर कही हो।
सामने से ट्रेन आई वह पटरी से हट गया ।
ट्रेन गुजर गई । ट्रेन के गुजरने के बाद वह नई ऊर्जा के साथ वापस घर आ गया।
उसके भीतर से “नेवर गिव अप”की तरंगे हिलोरें ले रही थीं।
वह अपने आप से कह रहा था एक न एक दिन वह जरूर सफल हो जाएगा।
50
स्वार्थ बनाम विचारधारा (लघुकथा)
“साथी यह क्या ?
अपना कुनबा छोड़कर दूसरा पकड़ लिया।”
एक दोस्त ने दूसरे दोस्त से कहा।
“साथी टिकट का चक्कर है।
शायद मुझे यहां टिकट मिल जाए…।”
दूसरे दोस्त ने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया।
“और विचारधारा साथी?”
पहले दोस्त ने फिर प्रश्न किया।
“अब राजनीति में विचारधारा रही कहां है?
स्वार्थ है स्वार्थ ;
निजी स्वार्थ के सामने यहां सभी पलटू राम हैं इनमें एक नाम मेरा भी जोड़ लो ।”
और वह जवाब देते हुए हंस दिया… ।
अशोक दर्द 09-03-2024
51
मुखौटा (लघुकथा)
“आप दलित विमर्श पर बहुत अच्छा बोल लेते हो
सर ।”
पत्र वाचन के बाद दलित विमर्श विषय पर उसके कॉलेज में आए रिसोर्स पर्सन डॉक्टर तिवारी से अनुभव ने प्रश्न किया।
“जी शुक्रिया।
मैंने दलित विमर्श पर वर्षों तक शोध किया है।
मेरी पी. एच. डी. इसी विषय पर है ।”
डाॅ. तिवारी ने जवाब दिया।
“क्या कभी आपने दलित जीवन को जिया भी है?”
अनुभव ने फिर प्रश्न किया।
अब प्रोफेसर साहब के पास उसके इस प्रश्न का शायद
कोई जवाब नहीं था…।
वह प्रश्न को अनसुना कर आगे बढ़ गए।
52
सीख…. (लघुकथा )
बाप बेटा चोरी करने निकले तो बापू ने अपने बेटे को पहाड़ के टीले पर स्थित गांव के एक घर की ओर इशारा करते हुए कहा -“वह जो टीले पर दीया जलते हुए घर दिख रहा है न ,आज हम इसी घर में चलेंगे चोरी करने ।
मैं यहां पहले नौ बार चोरी कर चुका हूं।
अब दसवीं बार तू भी मेरे साथ है।” बापू ने जैसे अपनी बहादुरी प्रदर्शित करते हुए बेटे से कहा ।
तब बेटा बोला- “बापू नौ बार इस घर को लूटने के बाद भी इस घर में दीया जल रहा है ?
इतना होने के बावजूद भी यह घर आबाद है।
परंतु हमारे घर में तो इतनी चोरियों का माल लाने के बाद भीअंधेरा ही है ।
हमारे घर में तो दिया जलाने तक का तेल नहीं है।”
फिर वह बोला -“बापू आज के बाद हम चोरी नहीं करेंगे ।
हम भी मेहनत के दीए से अपने घर को रोशन करेंगे।”
बेटे की बात ने बापू का मन बदल दिया और दोनों बाप बेटा वहीं से वापस घर आ गए।
****अशोक दर्द
अशोक दर्द डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
अशोक दर्द
डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
**** अशोक दर्द
प्रवास कुटीर गाँव व डा. बनीखेत
तह. डलहौज़ी जिला चम्बा [हि.प्र.]
पिन -176303
1 युग-विडम्बना [लघुकथा ]
सावित्री की बेटी पारो के ससुराल से फोन आया ,पारो के लड़का हुआ है |बूढ़ी विधवा माँ बहुत खुश हुई |नानी बनने पर उसे पूरे मोहल्ले के परिचितों से खूब बधाइयाँ मिलीं |फिर कुछ समय बाद पारो का फोन आया ,मम्मी मेरे यहाँ आना तो जरा नाक से आना | पहली बार पारो की शादी के समय डिमांड उसके ससुराल वालों की थी |तब उसने अपने गहने व जमा पूँजी निकल कर पारो की शादी खूब धूमधाम से कर दी थी | अब की बार डिमांड उसकी अपनी बेटी पारो की थी |यद्यपि पारो माँ की परिस्थितियों से अच्छी तरह परिचित थी | माँ ने दोनों बेटों से पारो के फोन की बात कही ,परन्तु दोनों ने अपनी – अपनी तंगी का रोना रोकर हाथ खड़े कर दिए |तब सावित्री ने अपनी बची दो सोने की चूडियाँ बेचकर दोहते के लिए चेन बनवाई और पूरे परिवार के लिए कपड़े खरीदे | फल और मिठाइयां टोकरे में बांध पारो के यहाँ हो आई | पारो के ससुराल में उसके मायके की नाक तो बच गई परन्तु बूढ़ी माँ जब वापिस घर आई तो उस पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा | चूडियाँ बेचने की बात सुनकर बेटे – बहुएं उससे इस कदर खीझ गये कि कलह क्लेश के बाद उसे दो रोटियां भी देना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा | अब सावित्री मंदिर में सेवा करके अपनी दो रोटियां व बुढ़ापे कि दवाइयों का खर्च चलती है और वहीँ मंदिर की धर्मशाला के एक टूटे –फूटे कमरे में घुट –घुट कर अपना बुढ़ापा ढो रही है | उधर बेटों –बहुओं का कहना है कि माँ जी का रुझान भगवान की ओर हो गया है |वह अब घर के बंधन में बंधकर नहीं रहना चाहती | इसलिए वह सन्यस्त हो गई हैं और अब घर नहीं आतीं ||
2
सुगंध- दुर्गंध [लघुकथा ]
मेरे घर के पास ही अपने पिल्लों के साथ एक कुतिया नाली के बगल में पड़े कूड़े के ढेर पर अपने तथा पिल्लों के लिए रोटी तलाश लेती थी ।आज रात भारी बर्फवारी हुई । कूड़े का ढेर बर्फ में दब गया था । कुतिया अपने पिल्लों को लेकर मेरे कमरे के सामने बन रहे नये मकान में आ गई । मकान के एक कमरे में सीमेंट की खाली बोरियां पडी थीं । उसने वहीँ अपना डेरा जमा लिया था । दिन जैसे – जैसे चढ़ने लगा भूखी कुतिया के स्तनों को भूखे पिल्ले चूस – चूस कर बुरा हाल करने लगे । शायद स्तनों से निकलता दूध उनके लिए पर्याप्त नहीं था । भूखे पिल्लों की चूं – चूं की आवाजें हमारे कमरे तक आ रही थीं । मेरी पत्नी ने जब यह दृश्य देखा तो रात की बची रोटियां लेकर उस कमरे की ओर चल दी । मैं खिडकी से ये सब देखे जा रहा था । जैसे ही वह वहाँ पहुंची कुतिया उसे देखकर जोर जोर से भौंकने लगी ।ऐसे लगा मानो वह मेरी पत्नी पर टूट पड़ेगी । तभी मेरी पत्नी ने उसे प्यार से पुचकारा और रोटियां तोड़कर उसके मुंह के आगे डाल दीं ।अब कुतिया आश्वस्त हो गई थी कि उसके बच्चों को कोई खतरा नहीं है । कुतिया ने रोटी सूंघी और एक तरफ खड़ी हो गई । भूखे पिल्ले रोटी पर टूट पड़े । कुतिया पास खड़ी अपने पिल्लों को रोटी खाते देखे जा रही थी । सारी रोटी पिल्ले चट कर गये । भूखी कुतिया ने एक भी टुकड़ा नहीं उठाया ।मातृत्व के इस दृश्य को देख कर मेरा हृदय द्रवित हो उठा और इस मातृधर्म के आगे मेरा मस्तक स्वतः नत हो गया । मेरा मन भीतर ही भीतर मानो सुगंध से महक उठा ।
तभी मैंने दरवाजे पर पड़ा अखबार उठाया और देखा , यह खबर हमारे शहर की ही थी । कोई महिला अपनी डेढ़ साल की बच्ची को जंगल में छोड़कर अपने प्रेमी संग फरार हो गई थी इस उद्देश्य से कि शायद कोई हिंसक जानवर इसे खा जायेगा ।आर्मी एरिया होने के कारण पैट्रोलिंग करते जवानों ने जंगल से बच्ची के रोने की आवाजें सुनी तो उसे उठा लाए और पुलिस के हवाले कर दिया । फोटो में एक महिला पुलिस कर्मी की गोद में डेढ़ साल की बच्ची चिपकी थी । पिता को बच्ची कानूनी प्रक्रिया पूरी होने के उपरांत ही सौंपी जानी थी । खबर को पढ़ने के उपरांत दोनों दृश्य मेरे मानस पटल पर रील की भांति आ जा रहे थे । अब इस खबर की दुर्गंध से मेरा मन कसैला हो गया था ।
3
घाटे का सौदा [लघुकथा]
सूरज के मोबाईल पर मैसेज आया कि देश के साहित्यकारों की रचनाओं का एक वृहद ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है | जिसमें वह भी शामिल है | उसकी भी दो रचनाओं को स्थान मिला है | मैसेज पढ़कर उसे बहुत ख़ुशी हुई | उसे याद आया लगभग एक वर्ष पहले उसने इस वृहद ग्रन्थ के लिए अपनी रचनाएँ भेजी थीं | उसने तुरंत उस नम्बर पर फोन लगाया | किसी भद्रजन ने फोन उठाया बड़े अदब से बात की | जब सूरज ने ग्रन्थ की प्रति लेने के लिए कहा तो उन्होंने बताया किआप हमारे बैंक खाते में मात्र छः सौ रूपये जमा करवा दें | राशी मिलते ही एक प्रति आपको रजिस्टर्ड डाक से भेज दी जाएगी | छः सौ रुपये सुनते ही उसकी रचना – प्रकाशन की ख़ुशी एकदम ठंडी पड़ गई | बेरोजगार सूरज को कवितायेँ लिखना भी घाटे का सौदा लगने लगा | उसने चुपचाप फोन काट दिया ||
4
कर्जमुक्त [लघुकथा ]
एक वक्त था , सेठ करोड़ीमल अपने बहुत बड़े व्यवसाय के कारण अपने बेटे
अनूप को समय नहीं दे पा रहे थे | अतः बेटे को अच्छी शिक्षा भी मिल जाये और व्यवसाय में व्यवधान भी उत्पन्न न हो इसलिए दूर शहर के बोर्डिंग स्कूल में
दाखिल करवा दिया | साल बाद छुट्टियाँ पडतीं तो वह नौकर भेज कर अनूप को घर
बुला लाते | अनूप छुट्टियाँ बिताता स्कूल खुलते तो उसे फिर वहीँ छोड़ दिया जाता| वक्त बदला, अब अनूप पढ़-लिख कर बहुत बड़ा व्यवसायी बन गया और सेठ करोड़ी मल बूढ़ा हो गया | बापू का अनूप पर बड़ा क़र्ज़ था | उसे अच्छे स्कूल में जो पढ़ाया – लिखाया था | बापू का सारा कारोबार बेटे अनूप ने खूब बढ़ाया – फैलाया | कारोबार में अति व्यस्तता के कारण अब अनूप के पास भी बूढ़े बापू के लिए समय नहीं था | अतः अब वह भी बापू को शहर के बढ़िया वृद्धाश्रम में छोड़ आया और फुर्सत में बापू को घर ले जाने का वायदा कर वापिस अपने व्यवसाय में रम गया | वृद्धाश्रम का मोटा खर्च अदा कर अब वह स्वयं को कर्जमुक्त महसूस कर रहा था ||
5
औजार
सोहन का तबादला दूर गांव के हाई स्कूल में हो गया |शहर की आबो –हवा छूटने लगी |पत्नी ने सुझाव दिया,कल हमारे मोहल्ले में नये बने शिक्षा मंत्री प्रधान जी के यहाँ आ रहे हैं | क्यों न माताजी को उनके सामने ला उनसे ,मंत्री जी से तबादला रोकने की प्रार्थना करवाई जाये | शायद बूढ़ी माँ को देख मंत्री जी पिघल जाएँ और तबादला रद्द करवा दें | सोहन को सुझाव अच्छा लगा |वह शाम को ही गाँव रवाना हो गया और बूढ़ी माँ को गाड़ी में बैठा सुबह मंत्री जी के पहुंचने से पहले ही प्रधान जी के घर पहुँच गया |ठीक समय पर अपने लाव –लश्कर के साथ मंत्री जी पहुँच गये | लोगों ने अपनी –अपनी समस्याओं को लेकर कई प्रार्थना –पत्र मंत्री महोदय को दिए | इसी बीच समय पाकर सोहन ने भी अपनी बूढ़ी माँ प्रार्थना –पत्र लेकर मंत्री जी के सम्मुख खड़ी कर दी | कंपती-कंपाती बूढ़ी माँ के हाथ के प्रार्थना –पत्र को मंत्री जी ने स्वयं लेते हुए कहा –बोलो माई क्या सेवा कर सकता हूँ |तब बूढ़ी माँ बोली –साहब मेरे बेटे की मेरे खातिर बदली मत करो ,इसके चले जाने से इस बूढ़ी की देखभाल कौन करेगा |शब्द इतने कातर थे कि मंत्री जी अंदर तक पिघल गये |बोले –ठीक है माई ,आपके लिए आपके बेटे की बदली रद्द कर दी गई |उन्होंने साथ आये उपनिदेशक महोदय को कैम्प आर्डर बनाने को कहा |कुछ ही देर में तबादला रद्द होने के आर्डर सोहन के हाथ में थे | सोहन और बूढ़ी माँ मंत्री जी का धन्यवाद करते हुए घर आ गये |शाम की गाड़ी में सोहन ने बूढ़ी माँ गांव भेज दी | अब पत्नी भी खुश थी और सोहन भी ,उनका आजमाया औजार चल गया था ….||
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जेब कतरे
मैं एक धार्मिक यात्रा के दौरान वापिसी में रात को एक होटल में खाना खाने के लिए बैठा तो सामने के टेबल पर मुझ से पहले बैठा एक दम्पति खाना खा रहा था | छोटा बच्चा टेबल के साथ खड़ा खेल रहा था | दोनों आपस में बातें कर रहे थे |पत्नी बोली –आज अच्छा कमा लिया ,दो हजार बन गये | पति ने मुस्कुराते हुए खाने का कौर अन्दर किया | मैंने उन्हें गौर से देखा_ये वही दम्पति था जिसने रास्ते में मुझसे जेब कटने की बात कह कर घर पहुंचने के लिए कुछ आर्थिक सहायता की प्रार्थना की थी और मैंने उनकी हालत देख कर जेब से तुरंत पांच सौ रूपए निकल कर दे दिए थे | अब मुझे लगा की जेब उनकी नहीं मेरी कट गई थी
| मेरे खाने का स्वाद कसैला हो गया था | उन्हें देख कर मुझे गुस्सा और घिन् आ रही थी ||
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कर्जमुक्त। ( लघुकथा)
धर्मचंद करमचंद से -‘भाई रात पार्टी का खूब आनंद आया ।
हमारे पार्टी के उम्मीदवार खूब खर्चा कर रहे हैं। लाखों रुपए हम सब पर खर्च कर दिए होंगे इन्होंने । रोज दारु और मुर्गे न जाने हजारों रुपए का एक-एक दिन का खर्च आ रहा होगा ।
कल की पार्टी का भी हजारों रुपए खर्च आया होगा । मुझे तो कल होश ही नहीं रहा था कैसे कब घर पहुंचा कोई पता नहीं। गनीमत यह रही कि जब सुबह उठा तो अपने घर में ही अपने बिस्तर पर था।
आज हमें उनके लिए कुछ काम करना होगा । उनके लिए आज वोट मांगने होंगे ताकि हम जो खा पी रहे हैं उसका थोड़ा सा कर्ज उतर जाए । शहर केचौराहे पर जाकर दोनों रैली में शामिल हो गए । भीड़ को चीरते हुए आगे बढ़े और तभी करमचंद जोर से बोले -नीलू भाई आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं । भीड़ ने मिलकर जोर से नारा लगाया नीलू भाई आगे बढ़ो हम तुम्हारे साथ हैं । फिर नारों की गूंज से शहर का चौराहा गूंजने लगा । अब उन्हें लग रहा था कि उन्होंने रात की पार्टी का ऋण चुका दिया है।
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अपना – पराया [लघुकथा ]
सरकारी स्कूल दारपुर की हिन्दी टीचर नेहा का बेटा अभि शहर के नामी प्राइवेट स्कूल में पढ़ता था | उसकी हिन्दी की टीचर ने उसकी हिन्दी की नोट बुक पिछले दो दिन से चैक नहीं की थी आज नेहा सीधे अपने स्कूल जाने की बजाय बेटे के स्कूल पहुँच गई | बेटे की नोट बुक प्रिंसिपल की मेज पर पटक-पटक कर सवाल-जवाब करने लगी | प्रिंसीपल ने हिन्दी टीचर को दफ्तर में बुलाकर खूब डांट पिलाई नेहा प्रिंसीपल को ऐसे निक्कमे टीचर निकाल कर अच्छा टीचर रखने की सलाह देकर दफ्तर से सीधे अपने स्कूल आ गई | बच्चे अपनी नोट बुक्स लेकर कह रहे थे – ‘मैडम हमारी नोट बुक्स चैक कर लो |’ मैडम ने कहा –‘बच्चो आपकी नोट बुक्स कल चैक कर दूँगी आज मेरा सिर दुःख रहा है | बाहर से गुजरते हुए मैडम वीना ने जैसे ही नेहा से आज देर से आने के बारे पूछा तो वह बिफर पड़ी | उसने वीना को बताया कि वह बेटे के स्कूल गई थी | फिर दोनों टीचर अपने बच्चों के विद्यालय व उनकी पढ़ाई के बारे मे बतियाने लगीं | नेहा ने अपने बेटे के स्कूल में हुए आज के घटनाक्रम को लेकर खूब शेखियां बघारीं | वह कह रही थी आज उसने प्रिंसीपल व उसकी हिन्दी टीचर को खूब बाट लगाई | दोनों टीचर आपसी घरेलु बातों में मशगूल हो गईं | इधर बच्चे अपनी नोट बुक्स के पन्ने पलट रहे थे | पिछले कई दिनों से उनकी नोट बुक्स चैक ही नहीं हुई थीं | अपने टीचर को बातों मे व्यस्त देख धीरे-धीरे क्लास रूम में शोर बढ़ गया था…||
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बदला (लघुकथा)
क्लास में मैडम गीता ने शब्द का उच्चारण अशुद्ध किया तो मैंने टोक दिया | फिर क्या था ? मैडम का पारा मेरे लिए सातवें आसमान पर रहने लगा | फिर मैं साल भर मैडम के मुंह न लगी | यूँ तो मैं स्कूल कैप्टन थी, परन्तु मैडम के लिए जैसे मैं उसकी प्रतिद्वंदी थी | मैडम को जब भी मुझे जलील करने का मौका मिलता वह कभी नहीं चूकती | स्कूल का वार्षिक समारोह हुआ | बच्चों की ओर से मिस फेयरवेल चुना जाना था | बच्चों ने मेरे नाम की पर्ची लिखकर बक्से में डाली थी | मैडम को पर्ची निकालकर नाम अनाउंस करने के लिए कहा | मैडम ने पर्ची निकाल कर अपनी प्रिय स्टूडेंट का नाम अनाउंस कर दिया | सभी बच्चे मैडम को घूर रहे थे | मैडम ने पर्ची फाड़कर फैंक दी थी | और संतुष्ट थी कि उसने बदला ले लिया है | इस बार फिर उसने अशुद्ध उच्चारण किया है मेरे मुंह से अनायास निकल गया ||
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समय के पदचिन्ह (लघुकथा)
अनुभव ने लाला मदन लाल को कहा-” मुझे बढ़िया से जूते दिखाओ ‘।लाला का नौकर उसे जूते दिखाता गया और वह रेंज बढ़ाता गया। कस्बे की इस दुकान पर सबसे महंगे जूते दस हजार तक के ही थे । उसने कहा -‘ इससे महंगे और भी है जूते?” लाला ने इंकार कर दिया। अनुभव ने वे जूते खरीद लिए । पैसे देने के लिए जैसे ही अनुभव लाला मदनलाल के काउंटर पर खड़ा हुआ , लाला मदन लाल ने बिल काटते हुए कहा बेटा आप कहां से हो ? मैंने आपको पहचाना नहीं ? अनुभव बोला – लालाजी मैं धर्मनगर से महू का बेटा हूं । फिर लाला ने पूछा क्या करते हो ? तो वह बोला – मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में साइंटिस्ट हूं ।तब लाला बोला -अच्छा तो आप महू के बेटे हो; महू तो हमारा ही ग्राहक था। अनुभव बोला जी पिताजी आपके ही ग्राहक थे । फिर वह आगे बोला- “शायद आपको याद हो न हो लेकिन मुझे तो आज भी बीस बरस पहले की वह सारी घटना याद है। मैं बीमार था मेरे पिताजी मुझे दवाई लेने बाजार आए थे ।उनके जूते फटे हुए थे । बारिश लगी थी ।बारिश का सारा पानी जूतों में जा रहा था ।मैं उस समय दस वर्ष का था ।वह आपकी दुकान पर आए और आपसे उधार में जूते मांगे । उन जूतों का मूल्य उस समय दस रुपए था । परंतु आपने उधार में जूते देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि यह बहुत महंगे जूते हैं आपकी हैसियत से बाहर हैं । इतने महंगे जूते मैं आपको उधार नहीं दे सकता । आपने दूसरी तरफ रखे हुए जूते दिखाते हुए कहा था कि “आपने लेने ही हैं तो ये दो रुपए वाले ले लो उधार में।” पिताजी को यह बात चुभ गई । वे उन्हीं फटे जूतों में वापिस घर आ गए। जबकि पिताजी आपके पास ही पूरे परिवार के लिए जूते खरीदा करते थे । उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था। फिर वह आगे बोला – ये जूते मैं अपने पापा के लिए ही ले रहा हूं । लालाजी वक्त बदलता रहता है ।यह कहकर वह दुकान से बाहर आ गया । अब समय के पदचिन्ह लाला के मानस पटल पर उभर आए थे । वह निरुत्तर सा होकर अनुभव को तब तक देखता रहा जब तक वह अपनी कार में न बैठ गया ।
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शराफत का फल (लघुकथा)
मदन शाम को अपने घर वापिस आ रहा था। रास्ते में उसे एक खच्चर वाला व्यक्ति मिला ।उसकी दो खच्चरें थी। एक खच्चर खाली थी जबकि दूसरी पर दो खच्चरों का बोझ लदा था। खाली खच्चर मस्त होकर आगे-आगे चल रही थी ।जबकि दूसरी खच्चर बेचारी घिसटते हुए रास्ता तय कर रही थी। मदन ने उनके मालिक से पूछ ही लिया -“भाई यह क्या? एक खच्चर खाली और दूसरी पर दो खच्चरों का बोझ इकट्ठे ?” वह बोला- “बाबूजी यह जो अगली खच्चर है बहुत चंदरी है छट्ट को जानबूझकर गिरा देती है। रास्ते में यह छट्ट को दो बार गिरा चुकी है ।और जब दोबारा अकेले मैं लादने लगता हूं तो यह छट्ट को लादने ही नहीं देती। इसलिए मैंने इसकी छट्ट दूसरी पर लादी है। यह बेचारी बहुत शरीफ है। कभी लात तक नहीं उठाती ।बच्चा भी इसे लाद व उतार सकता है। दो का बोझ भी लाद दो तो भी घिसटती हुई पहुंचा ही देती है। मदन के मस्तिष्क में कभी अपने आवारा भाई का चेहरा तो कभी अपना चेहरा घूम रहा था । उसे अपने और उस दो का बोझ लादे खच्चर में समानता दिखने लगी थी ।खच्चरों के मालिक में उसे अपने बाबूजी का चेहरा दिख रहा था।
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निर्दयी भूख
अभी सुबह हो ही रही थी | सूर्य की लालिमा धरती तक नहीं पहुंची थी | मैं किसी जरुरी कार्य के सिलसिले में बाहर जा रहा था | इसलिए घर से जल्दी निकला था | और बस के इन्तजार में अपने शहर के बस स्टैंड पर खड़ा था | सामने सड़क में कुछ दाने बिखरे थे | कुछ कबूतर उन दानों को चुगने के लिये सड़क में बैठ गये | तभी एक गाड़ी सड़क से गुजरी | बाकि कबूतर तो उड़ गये परन्तु एक कबूतर गाड़ी के नीचे आ गया | सड़क पर खून का एक धब्बा सा उभर आया व पंख इधर-उधर बिखर गये | तभी सामने से एक कुत्ते ने देखा तो वह उसे खाने सड़क की तरफ लपका | अभी वह उस धब्बे को चाटने ही लगा था कि पीछे से एक और तेज गति से आती गाड़ी उसके ऊपर से गुजर गई | मांस के लोथड़े व खून ही खून सड़क पर फैल गया |निर्दयी भूख ने कबूतर और कुत्ते की जान ले ली | मैं सुबह-सुबह यह सारा दृश्य देख अन्दर ही अन्दर रो उठा |
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शब्दों की मार
नगीन के घर गर्मियों में तो मेहमानों का आना-जाना लगा ही रहता है |हर रोज कोई न कोई मेहमान घर में आ ही जाता है | आज भी उसका दोस्त रोहन अपनी पत्नी व बच्चों के साथ उसके घर में रुका था | नगीन का स्वभाव ही था आदमी हों या चाहे कुत्ते-बिल्ले सब के साथ विनम्र रहता, सेवा करता परिणामस्वरूप उसके बरामदे में शाम के समय कुत्तों का भी जमघट लग जाता | पांच-सात कुत्ते तो रोज उसके बरामदे या छत पर टहलते-सोते | अंधेरा उतरने लगा था दो कुत्ते घूम-फिर कर उसके खुले गेट से बरामदे की तरफ बढ़ रहे थे | उसने बरामदे में बैठे देखा और कुत्तों को सम्बोदित करते हुए बोला- ‘अवा परौह्णयों गेट खुल्ला ई है’ | अर्थात मेहमानो आ जाओ गेट खुला है | अन्दर बैठे उसके दोस्त ने ये सुना तो शीशे के बीच से पत्नी को बाहर देखने के लिये कहा | पत्नी ने बाहर देखा-आदमी तो कोई नज़र नहीं आया. परन्तु दो कुत्ते बरामदे की तरफ बढ़ते दिखे | पत्नी ने बताया-मेहमान तो कोई नही है , दो कुत्ते बरामदे की तरफ आयें हैं | और बरामदे में टहल रहें हैं | पति-पत्नी ने एक-दूसरे की आँखों में देखा,पत्नी ने मुंह बिचकाया उन्हें लगा ये शब्द हमारे लिये ही व्यंग्य में कहे गये हैं | उस रात उन्हें नींद नहीं आई | उन्हें लगा वे सही जगह मेहमान बन कर नहीं आये हैं | उधर शब्दों की मार से अनजान नगीन इस सब से अनभिज्ञ दोस्त की सेवा में लगा रहा |
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देशद्रोह (लघुकथा)
पहाड़ों में सर्दियां शुरू होते ही धूप बड़ी मीठी हो जाती है। गुनगुनी धूप का अपना अलग ही मजा होता है ।रोज की भांति आज भी स्कूल लगा । अध्यापकों ने सारे बच्चे कमरों से निकालकर ग्राउंड में बिठा दिए ।अब बच्चे भी गुनगुनी धूप का आनंद ले रहे थे । स्टाफ रूम की बनावट कुछ इस तरह थी कि खिड़कियां खुलते ही सीधी धूप कमरे में आ जाती थी । सभी अध्यापकों ने स्टाफ रूम में बैठकर चाय पी । फिर प्लान बना क्यों न आज गलगल की चाट बनाई जाए । अतः पास की दुकान से गलगल मंगवा लिए गए । फिर पुदीने वाले नमक का प्रबंध किया गया और लगभग एक घंटे तक चाट बनाने खाने का दौर चलता रहा ।कोई भी शिक्षक इस दौरान कक्षा में नहीं गया । बच्चे ग्राउंड में धमाचौकड़ी मचाते रहे । इस सरकारी समय में से एक घंटा खाने-पीने में बर्बाद कर दिया गया था । जो बच्चों की पढ़ाई के लिए लगना चाहिए था । उस घंटे के सरकार से वेतन के पैसे मिल रहे थे । अनुभव ने उस दिन अपने आप से पूछा था- क्या यह देशद्रोही नहीं है? अंदर से आवाज आई थी- यह भी एक तरह का देशद्रोह ही है । उसकी अंतरात्मा ने कहा -आपने सरकार से बच्चों को पढ़ाने के लिए पैसे तो ले लिए परंतु आपने इन बच्चों के जीवन का महत्वपूर्ण एक घंटा न पढ़ा कर बर्बाद कर दिया । उसके बाद अनुभव को स्कूल टाइम में ऐसी गतिविधियां देशद्रोह नजर आने लगीं, और अब वह हमेशा ऐसी गतिविधियों से दूर रहने लगा।
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समय का फेर [लघुकथा ]
विमला को गाँव वाले मास्टरनी कह कर बुलाते थे | क्योंकि उसके पति गाँव के सरकारी स्कूल में मास्टर जो थे |गाँव में मास्टरनी को भी मास्टर जी की तरह ही सम्मान प्राप्त था | विगत दो वर्ष पहले गाँव के स्कूल में वार्षिकोत्सव मनाया गया तो कई गणमान्य लोगों के साथ – साथ मास्टरनी भी उस समारोह में मास्टर जी के साथ मुख्यतिथि के साथ बैठी थी | मास्टरजी के साथ उसे भी अन्य लोग बराबर सम्मान देते थे | ये सब उसे भी अच्छा लगता था | वक्त ने करवट बदली ,मास्टरजी की एक दुर्घटना में मृत्यु हो गई | दुखों के पहाड़ के नीचे मास्टरनी दब गई | तीन बच्चों का बोझ और खुद ,चार जनों को उठाने में उसकी पीठ लड़खड़ाने लगी | बड़ी जद्दोजहद के बाद उसे दैनिक भत्ते पर उसी स्कूल में चपड़ासी की नौकरी मिल गई | चूंकि वह आठवीं तक ही पढ़ी थी | कल की मास्टरनी अब चपड़ासिन बन स्कूल जाने लगी | कल तक जो लोग उसे दुआ-सलाम करते थे आज उससे मांगने लगे | उसे अन्दर ही अन्दर ये सब अच्छा न लगता मगर मरता क्या न करता ? बेबसी – लाचारी उसकी नियति थी | बच्चों व खुद का बोझ ढोने के लिए नौकरी जरूरी थी | तीन बरस नौकरी बीत गई | आज फिर स्कूल में वार्षिकोत्सव था | मुख्याध्यापक ने उसे सुबह जल्दी बुलाया था | इसलिए वह निर्धारित समय से पहले स्कूल में पहुँच गई | अभी तक कोई भी स्कूल में नहीं पहुंचा था | आफिस व कमरों की सफाई करके वह स्टाफ रूम में रखी कुर्सी पर आराम के लिए अभी बैठी ही थी तभी स्कूल के तीन चार अध्यापक आ गये | वह कुर्सी से उठने ही वाली थी कि एक ने उसे देख लिया उसे देखते ही वह उसे झिड़कते हुए बोला ,विमला बड़ी बाबू बन कर कुर्सी पर आराम फरमा रही हो ,अपने स्टूल पर बैठा करो | विमला कुर्सी से तो उठ गई थी परन्तु उसे अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती हुई लग रही थी | वह बुझे – बुझे कदमों से सबके लिए पाणी ले आई थी | तीन बरस पहले के वार्षिकोत्सव और इस वार्षिक उत्सव का फर्क उसके मानसपटल से गुजर रहा था |तीन बरस में ही मास्टरनी चपड़ासिन हो गई थी | नियति को स्वीकार कर अब वह खिसकती जमीन पर बुझे कदम लिए सभी आगंतुकों को पानी पिला रही थी , कुर्सियां दे रही थी | ये सब समय का फेर था …..||
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रिवायत…(लघुकथा)
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी सरकार की ओर से सरकारी संस्थानों में स्वच्छता सप्ताह मनाने के लिए सरकार के आदेश आए तो आदेश की अनुपालना में संस्थान के प्रभारी ने संस्थान में कार्यरत सभी अधिकारियों – कर्मचारियों को प्रांगण में इकट्ठा करके शपथ दिलवाई । सभी अधिकारियों कर्मचारियों ने वर्ष में सौ घंटे स्वच्छता के लिए कार्य करने और सौ लोगों को स्वच्छता के लिए प्रेरित करने की शपथ ली और सरकारी आदेश की अनुपालना करने की रिवायत निभा दी । फोटो खींचे गए ।प्रभारी महोदय ने संस्थान में शपथ समारोह करवा देने के फोटोज अपने उच्च अधिकारियों को रिपोर्ट के साथ मेल कर दिए । दूसरे दिन अखबारों में खबर के साथ फोटो भी छपी । कईयों ने अपने अपने फोटो सोशल मीडिया पर भी डाले । कुछ दिनों बाद , संस्थान में पसरी गंदगी पहले जैसी ही थी ,कुछ भी फर्क नहीं पड़ा था ।
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राजनीति लघुकथा
नरेशभान की पार्टी में अच्छी पैठ थी । इसलिए उसने मंत्री से मिलकर कस्बे में कुछ शामलात जमीन थी अपने नाम करवा ली और फिर गांव छोड़कर परिवार सहित कस्बे में बस गया ।और वहीं व्यापार करने लगा । यह 50 वर्ष पहले की बात थी। अब तो उसकी तीसरी पीढ़ी भी जवान हो गई थी और नरेशभान दुनिया को अलविदा भी कह गए थे ।मुड़कर परिवार ने न गांव की ओर देखा न ही गांव की जमीन संभाली । अब उनके हिस्से की वह जमीन झाड़ियों से भरी बंजर घासनियों में तब्दील हो गई थी ।आज नरेशभान के पोते अमित ने जब राजनीति करते हुए किसानों के हक में फेसबुक पर किसान आंदोलन के समर्थन में अपने कस्बे में धरने पर बैठने की बात कही तो कई कमैंट्स आने शुरू हो गए । उनमें एक कमेंट यह भी था कि पहले अपनी पचास साल से पड़ी बंजर जमीन को तो संभालो वहां किसानी तो करो , धरना फिर देना । थोड़ी देर बाद उसने वह कमेंट फेसबुक से हटा दिया था ।।
अशोक दर्द
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सबसे बड़ा इनाम (लघुकथा)
स्कूल के वार्षिक समारोह से घर आते ही बच्चों ने इनाम में मिले अपने अपने स्मृति चिह्न मां को दिखाने शुरू कर दिए । सबसे पहले बड़ी बेटी ने अपने इनाम में मिले स्मृति चिह्न अपने बस्ते से निकाले ,और दिखाने शुरू किये ।उसने साल भर स्कूल की कई प्रतियोगिताओं में भाग लिया था । इसलिए उसके इनाम भी सबसे ज्यादा थे । फिर मंझले बेटे ने दिखाए । उसने कम प्रतियोगिताओं में भाग लिया था। इसलिए उसके इनाम अपनी बहन से थोड़े कम थे । तभी छोटू जो सबसे छोटा था , अपने बस्ते से एक स्मृति चिह्न निकाल लाया। ।माँ ने पूछा -बेटे आपको यह किस लिए मिला है ? तो छोटू बड़ी मासूमियत से बोला – मम्मा ऑनेस्टी के लिए ।पूरे स्कूल में एक ही इनाम था जो मुझे मिला है । माँ के मुंह से अनायास निकल गया -सबसे बड़ा इनाम । माँ ने तीनों बच्चों को अपने सीने से लगा लिया ।।
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आदमी और कुत्ते [लघुकथा]
सड़क पर उमड़े हुजूम को दो कुत्ते बड़ी गौर से देख रहे थे |लोग जोर – जोर से चिल्ला रहे थे ‘ इन कुत्तों को फांसी पर लटका दो,चौराहे पर खड़ा करके गोली चलाओ , इन कुत्तों को सबक सिखाओ |शायद आज फिर शहर में गैंगरेप की कोई घटना हो गई थी | पहले कुत्ते ने दूसरे को घूरते हुए पूछा –ये लोग हमें गलियां क्यों निकाल रहे हैं |तब दूसरा बोला – लगता है शहर में फिर किसी ने बलात्कार किया है | तब पहला बोला – बलात्कार आदमी ने किया है और ये लोग गलियां हमें निकाल रहे हैं | हम आदमी की तरह इतने गिरे हुए तो नहीं हैं | हम ऐसे नीच काम तो नहीं करते | हम मौसम के अनुसार उम्र का ख्याल रखते हुए ही ये सब करते हैं | फिर ये हमारी जात को गलियां क्यों बक रहे हैं ,हम इनका विरोध करेंगे | और फिर दोनों कुत्ते गुस्से में उस उमड़े हुजूम पर जोर – जोर से भौंकने लग पड़े…||
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प्रश्न लघुकथा
बेटा परीक्षा देने के लिए जैसे ही घर से बाहर निकला आंगन मैं दौड़ती हुई बिल्ली ने उसका रास्ता काट लिया । वह रुक गया और बोला पापा आज बिल्ली ने रास्ता काट लिया । मेरा पेपर शायद अच्छा न हो ।तभी उसके पीछे दौड़ते हुए कुत्ते पर मेरी नजर पड़ी । मैंने कुत्ते को डांटा तो कुत्ता रुक गया। मैंने देखा बिल्ली अपनी जान बचाने के लिए दौड़ रही थी । बेटा उसे रास्ता काटने के नाम पर कोस रहा था । मुझे लगा मेरी डांटने पर बिल्ली के पीछे भागता कुत्ता तो रुक गया था परंतु लोकमानस के पीछे पीढ़ियों से दौड़ रहे अंधविश्वास आखिर कब रुकेंगे ? रह रह कर मेरे जहन में प्रश्न उठ रहे थे ।।
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राजनीति का गणित(लघुकथा)
विधायक के मंत्री बनते ही प्रधान रौणकी राम ने पत्नी से सलाह की कि– क्यों न मंत्री महोदय को घर में बुलाया जाये और नुवाले [शिव पूजन] का आयोजन उनके हाथों संपन्न करवाया जाए | ‘परन्तु इससे हमें क्या मिलेगा?’ पत्नी ने चेताया | रौणकी राम बोले- तू भी बड़ी भोली है | तुझे राजनीति का गणित नहीं आता | हम भी बिना लाभ के कोई काम नहीं करते | रौणकी राम ने शेखी बघारी | पत्नी चुप हो गयी | प्रधान ने निर्धारित तिथि पर मंत्री जी को नुआले में पधारने के लिए निमन्त्रण दे दिया और साथ में यह भी बता दिया कि मैंने आपके मंत्री बनने के लिए भगवान शिव से मन्नत की थी कि आप जीत कर मंत्री बन गये तो मैं अपने घर में नुआला [शिव पूजन] करवाऊंगा | इसलिए नुआले की सारी रस्म-पूजा आप ही के कर कमलों से सम्पन्न होगी | मंत्री महोदय ने ख़ुशी- ख़ुशी निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और निर्धारित तिथि को अपने लाव- लश्कर के साथ प्रधान के घर पहुँच भी गये | कई विभागों के अधिकारी भी मंत्री जी के साथ थे | उत्सव सम्पन्न हुआ | प्रधान की पहुँच की चर्चा दफ्तर – दफ्तर पहुँच गई | अब उसके सारे काम बिना रुकावट के होने लगे | उसकी रुकी हुई ठेकेदारी चल निकली | घर का कायाकल्प देख अब पत्नी को भी राजनीति का गणित समझ आ गया था |
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विडंबना लघुकथा
विद्यालय में आए नए प्रधानाचार्य की सरपरस्ती में यह पहला वार्षिक उत्सव था । उन्होंने इसी विद्यालय से अपनी शिक्षा प्राप्त की थी । क्योंकि उनके पिताजी इसी शहर में नौकरी किया करते थे । जिस विद्यालय में उन्होंने शिक्षा ग्रहण की थी कोसी विद्यालय में अब वह प्रधानाचार्य बनकर आए थे । विद्यालय के विद्यार्थी होने के नाते वह वार्षिक उत्सव में कोई कसर नहीं छोड़ना चाह रहे थे । उन्होंने एस एम सी की मीटिंग बुलाई और मुख्य अतिथि किसे बुलाया जाए विषय पर चर्चा की , तो सबने एक स्वर में कहा कि सत्ता पक्ष के जिलाध्यक्ष को मुख्य अतिथि बुलाया जाए ।सबके इस विचार पर अमल करते हुए एस एम सी के प्रधान को मुख्य अतिथि को निमंत्रण देने का कार्य सौंपा गया । निर्धारित तिथि को उत्सव होने जा रहा था । सारे अध्यापक एस एम सी के सदस्य व कुछ बच्चे हार लिए मुख्य अतिथि का स्वागत करने के लिए गेट पर खड़े थे । जैसे ही मुख्य अतिथि एक बड़ी गाड़ी से उतर कर गेट की तरफ आए प्रधानाचार्य महोदय ने अपने हाथ में लिया गुलदस्ता उन्हें देते हुए स्वागत किया और हाथ में पकड़ा हार मुख्य अतिथि के गले में डाल दिया ।जैसी ही नजरें मिली दोनों एक दूसरे को ऐसे देखने लगे मानो पहचानते हों । तभी वे एक दूसरे को पहचान भी गए । मुख्य अतिथि प्रधानाचार्य का सहपाठी था। जो हमेशा विद्यालय से बाहर रहता था ,और दसवीं भी पास नहीं कर पाया था ।
परंतु वह राजनीति में चमचागिरी के बूते बहुत बड़ा आदमी बन गया था । प्रधानाचार्य कोसमझ नहीं आ रहा था कि यह एक विडंबना है या किस्मत का खेल । कक्षा नवी कक्षा का मॉनिटर रहा विद्यार्थी एक बैंक करने वाले सहपाठी को हार पहनाकर स्वागत में खड़ा था वह कभी खुद को तो कभी जिलाध्यक्ष को देखता ।अब प्रधानाचार्य उसके पीछे पीछे चलते हुए मुख्य अतिथि को मंच तक ले आए ।
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प्रत्युत्तर (लघुकथा)
सुदेश की लड़की राधा मायके आ गई थी ।उसका पति उसे दहेज के लिए ज्यादा ही तंग कर रहा था । लड़की का दुख असहनीय था । अतः वह दामाद की मांग पूरी करने के लिए घर के सारे गहने लेकर सुनार की दुकान पर गया । रघु सुनार मर चुका था । उसका लड़का मोहन दुकान चलाता था । दीवार पर रघु की तस्वीर टंगी थी । सुदेश को तस्वीर देखते ही अतीत की याद आने लगी कि आज से बाईस वर्ष पहले इसी आदमी के पास उसके ससुर ने भी उसकी दहेज की मांग पूरी करने के लिए अपने सारे गहने बेच उसे पच्चीस हजार रूपए दिए थे तथा भविष्य में लड़की को तंग न करने के लिए गिड़गिड़ाया था । आज प्रत्युत्तर में बाईस वर्ष बाद उसे अपनी करनी का फल मिल रहा था । रघु की तस्वीर मानो उसकी दशा पर आज व्यंग्यात्मक मुस्कान लिए जैसे उसे घूर रही थी।
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आया (लघुकथा)
शकुंतला की भाभी अपनी पड़ोसन हेमा से कह रही थी पांच साल बीत गए इसे यहां रहते हुए न तो इसके मुक़दमे का कुछ हुआ और न ही कहीं दूसरी जगह इसके लिए किसी दूसरे लड़के का प्रबंध हुआ । विवाह के तीसरे दिन बाद यह तो ससुराल से भाग आई थी । कह रही थी मेरा पति नामर्द है । मैं किसी और की रखैल बनकर वहां नहीं रह सकती। शकुंतला के पति ने किया भी तो ऐसा ही था । सुहागरात को ही उसने उसे किसी दूसरे के सुपुर्द करना चाहा था । ताकि समाज में उसकी नाक भी बची रहे और वंशबेल भी खत्म न हो । परंतु यह सब शकुंतला को मंजूर नहीं था और वह जैसे कैसे वहां से भागकर मायके पहुंच गई थी। शकुंतला की भाभी ने बात आगे बढ़ाते हुए हंसकर कहा पांच साल हो गए इस के मुकदमे को कोर्ट में लटके पांच वर्ष और बीत गए तो यह भी बूढ़ी होने लगेगी । फिर इसे कौन ले जाएगा ।फिर हमें उस बुढ़िया( सास की तरफ इशारा करके )के साथ इस बुढ़िया की भी देखभाल करनी पड़ेगी । दोनों ने जोरदार ठहाका लगाया । हेमा ने बात का रुख बदलते हुए कहा दीदी तुम्हें बिना वेतन के अपने बच्चों के लिए आया मिल गई है । आज के इस दौर में बिना वेतन लिए सिर्फ कपड़े रोटी में ही आया भी तो नहीं मिलती। यह कहकर हेमा ने चुटकी ली ।और हेमा की पूरी बातचीत शकुंतला पर्दे के पीछे से सुनी थी । जिस मायके में वह कभी लाडली हुआ करती थी आज उसकी हैसियत एक आया से ज्यादा नहीं थी ।यह सोच कर उसकी आंखों से टप टप आंसू टपक पड़े।
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रिसते फफोले (लघुकथा)
मैंने अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी क्या चुना कि मेरे घरवालों ने मुझे धक्के मार मार कर घर से निकाल दिया ।और अपने दरवाजे मेरे लिए सदा के लिए बंद कर दिए । हम दोनों पढ़े लिखे थे पेट की आग लिए सुदूर शहर की ओर चल दिए । वहां जाकर हमने खूब मेहनत की तो दौलत से हमारी झोलियां भरने लगीं । समय का घोड़ा पंख लगाकर दौड़ता रहा । हमारे घर हम दोनों के प्रेम की निशानी सुमन आ गया था । समय की उड़ान का अगला पड़ाव आया तो हमने सुमन की एडमिशन करवा दी ।वह के जी में पढ़ने शहर के नामी स्कूल में जाने लगा । अच्छे-अच्छे घरों के बच्चे उसके सहपाठी थे । आज सुमन ने मुझसे ऐसा प्रश्न पूछ लिया जिससे मेरे हृदय के फफोले रिस उठे। स्कूल से आते ही आज वह पूछने लगा , मम्मी नानी क्या होती है ? मेरे फ्रेंडस सौरभ और गौरव बोल रहे थे कि हम नानी के घर जाएंगे । पिछले महीने भी हम नानी के घर गए थे । वहां हम खूब मजे करते हैं। नानी हमें कहानियां सुनाती है बढ़िया बढ़िया खाना खिलाती है । हमें बाजार से खिलौने लाकर देती है ।वह आगे बोला -“हम नानी के घर क्यों नहीं जाते ? वह कहां रहती है? हम नानी के घर कब जाएंगे?” मैंने बेटे को झूठी तसल्ली देते हुए कहा-” बेटा जैसे मैं तुम्हारी मम्मी हूं न, वैसे ही मेरी भी मम्मी है ,वह तुम्हारी नानी लगती है । उसका घर बहुत दूर है, बस छुट्टियां पड़ने दो फिर हम भी तुम्हारी नानी के घर जाएंगे और खूब मजे करेंगे ।” सुमन मान गया और बाहर आंगन में खेलने लग पड़ा। मैं अतीत की स्मृतियों में खो गई और मायके के बंद दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गई ।मेरे रिसते फफोलों की वेदना बढ़ गई और आंखों से टप टप आंसू टपक पड़े ।
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अंधेर नगरी (लघुकथा)
धर्म चंद ने ज्ञानचंद से कहा,” यार सरकार ने इस बार कृषि विभाग के दफ्तर में गेहूं का जो बीज बिक्री के लिए भेजा है बहुत अच्छा भी है और सस्ता भी। सरकार सब्सिडी इतनी दे रही है कि बाजार के मूल्य से आधे से भी कम है।”
” मुझे अस्सी किलो बीज चाहिए था परंतु चालीस ही मिला। कृषि अधिकारी बोल रहा था, खत्म हो गया है और मंगवा रहे हैं ।परंतु पता नहीं अब कब आएगा तब तक फसल का समय भी निकल जाएगा।” धर्म चंद ने उदास होते हुए कहा ।
ज्ञानचंद ने मुंह बनाते हुए कहा,” यार मैंने यह फायदा तो पहले ही उठा लिया है पूरे अस्सी किलो ले आया हूं ।” धर्म चंद ने कहा,” ” तुम्हें इतना बीज कृषि अधिकारी ने कैसे दे दिया, तुम्हारी तो इतनी जमीन भी नहीं है तुम इतना बीज क्या करोगे?”
यह सुनकर ज्ञानचंद तपाक से बोला ,”यार कृषि अधिकारी भी अपना यार बेली है ,दे दिया तो ले लिया ।इस गेहूं को धोकर सुखाऊंगा और पिसवा कर आटा बनाऊंगा ,बाजार से आधे रेट पर बढ़िया गेहूं का आटा…।” कहते-कहते उसके चेहरे पर ऐसे भाव उभर आए थे मानो उसने कोई मोर्चा फतह कर लिया हो।
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कौवे ( लघुकथा)
ठेकेदार धनपत राय का शहर के बाहरी भाग में भवन निर्माण का कार्य चल रहा था। मजदूरों के रहने के लिए सड़क के किनारे त्रिपाल व बांस की झोपड़ियां बना दी गई थीं। मजदूर औरतें औरउनकी जवान लड़कियां झोपड़ियों के बाहर बोरियां बांधकर या साड़ी पकड़कर बारी-बारी नहातीं । धनपत राय को मजदूर औरतों का इस तरह नहाना अच्छा नहीं लगा । उसने उन औरतों को वहां बन चुके दो कमरों के भीतर नहाने धोने के लिए कह दिया। मजदूर औरतें वहां नहाने लगीं। अब उन्हें व्यस्त रास्ते के किनारे साड़ियों की ओट में नहाने से निजात मिल गई थी। ठेकेदार द्वारा दी हुई इस सुविधा के लिए वे मन ही मन उनको धन्यवाद देतीं।
ठेकेदार की लेबर में कुछ मजदूरों में कानाफूसी होने लगी थी । उनका कहना था कि ठेकेदार की कोठी से यह कमरे बिल्कुल साफ साफ दिखाई देते हैं। वहां नहाती औरतें भी कोठी से साफ दिख जाती हैं। ठेकेदार ने इन औरतों और जवान लड़कियों के नंगे जिस्म देखने के लिए इन्हें वहां नहाने की सुविधा दी है । कुछ औरतों ने कमरों में नहाना छोड़ दिया।
यह बात धनपत राय तक भी पहुंची ।अगली सवेर उसने इस बात को फैला रहे दो नेतानुमा मजदूरों को अपनी कोठी बुलाया ।कैसे बुलाया ? मालिक मजदूर बोले -तुम्हारी पत्नियां नए बने कमरों में नहाती हैं। नहीं मालिक हमारी पत्नियां तो यहां हैं ही नहीं ।वे तो गांव में ही हैं । फिर तुम दोनों औरों को मेरे विरुद्ध यह क्यों बताते हो कि मैं उनकी औरतों को नहाते हुए देखता हूं । हम्म.. हम नहीं मालिक । मजदूरों को कोई बात नहीं सूझ रही थी । अरे घबराओ नहीं ।मैंने तो तुम्हें इसलिए बुलाया है कि आज मेरे साथ तुम भी नहाती हुई औरतों को देखने का मजा लो । मजदूरों को धनपत राय उन्हें ऊपर के कमरे की खिड़की के पास ले गया और काफी दूरी पर बन रही इमारत में नहा रही औरतों को निहारने को कहा। मजदूरों ने इधर उधर हो उनको जाकर देखने का बहुत प्रयास किया मगर कुछ दिखाई नहीं दिया। तब धनपत राय बोला – तुम तो कौवे हो , इसलिए तुम्हें हर जगह विष्टा ही नजर आती है ।
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वसंत का आना( लघुकथा)
नंदू रोज शराब पीता था। जो कमाता व शराब में उड़ा देता। शराब पीकर घर में लड़ते झगड़ते व मारपीट करता ।उसका पांच वर्षीय बेटा सोमनाथ डरा सहमा सा ये सब देखता। कई बार उसकी पत्नी बेटे को लेकर रात रात भर लोगों के घरों के पिछवाड़े में छुपकर जान बचाती। पूरा गांव उसके इस नशेड़ी पने से परेशान था। लोग थू थू करते । परंतु उस पर कोई असर न होता। कई बार उसे नशा निवारण केंद्र भी ले जाया गया। परंतु वहां से आते ही वह पुनः शुरू हो जाता ।एक रात वह नशे में टल्ली हो घर लौटते समय रास्ते में सीवरेज के गंदे नाले में गिर गया । रात भर वहउसी में बेहोश पड़ा रहा । सुबह जब उसकी आंख खुली वह होश में आया तो उसने नन्हे से हाथ का स्पर्श महसूस किया ।उसका बेटा सुमन उसे नाले से बाहर निकालने का प्रयास कर रहा था। आसपास खड़े लोग उसकी इस दुर्दशा को देखकर मुस्कुरा रहे थे। बेटे के नन्हे हाथों का स्पर्श पाते ही वह आत्मग्लानि से भर उठा ।उसने अपनी तरफ देख नाले में पड़ा वह मानो गंदगी का ढेर बन गया था ।अपनी दुर्दशा पर लोगों को मुस्कुराते देखा ।उसे पहली बार शर्म महसूस हुई ।उसने मन ही मन प्रण किया कि भविष्य में वह कभी नशा नहीं करेगा । ऐसा नारकीय जीवन कभी नहीं जिएगा ।नाले से निकल वह घर पहुंचा ।पत्नी से क्षमा मांगी। तो उसे लगा कि उसके आंगन में फिर बसंत आ गया था।
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सजा (लघुकथा )
चुनावी दिन थे। कार्यकर्ता घर-घर जाकर मतदाताओं से अपनी पार्टी को वोट देने के लिए संपर्क कर रहे थे। कुछ कार्यकर्ता अपने नेता सहित जब स्कूल अध्यापक रमेश के गांव में पहुंचे तो अचानक आसमान बादलों से भर गया और गरज चमक के साथ भारी वर्षा शुरू हो गई ।पांच छः आदमी रमेश के बरामदे में ही खड़े हो गए । रमेश ने आतिथ्य भाव से उन्हें अंदर बैठा दिया तथा चाय पान करवाया । बाहर ऐसे लग रहा था मानो ये काले घनघोर बादल आज बरसकर पुनः नहीं बरसेंगे । बारिश पल-पल बढ़ रही थी। देखते ही देखते अंधेरा हो गया ।गांव से सड़क बहुत दूर थी। पैदल रास्ता लंबा था । अतः उन सब को रात में मजबूर होकर रमेश के घर में ही रुकना पड़ गया । सुबह वे अगले पड़ाव की ओर चल दिए ।इसी के साथ ही अध्यापक रमेश के घर में उक्त नेता के रुकने व रमेश के आतिथ्य सत्कार की खबर जंगल की आग की तरह दूसरी पार्टी तक पहुंच गई। रमेश को न चाहते हुए भी उक्त नेता की पार्टी के साथ गांठ दिया गया । कुछ दिनों बाद चुनाव हो गए । दूसरी पार्टी सत्ता में आ गई । रमेश को उस नेता को रात अपने घर ठहराने व आतिथ्य सत्कार के जुर्म में दुर्गम क्षेत्र में बतौर सजा स्थानांतरित कर दिया गया
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गर्व (लघुकथा)
मैंने रिक्शा वाले को जाने का इशारा किया तो वह पास आकर रुक गया बोला -“साहब कहां जाना है?” मैंने कहा- “दरबार साहब ;कितने पैसे लोगे ?” “साहब दस रुपए ।”हम दोनों मैं और मेरी पत्नी रिक्शे में बैठ गए । हम दोनों आपस में बातें कर रहे थे । वह सुनता रहा। फिर बोला -“साहब हिमाचल से हो?” मैंने कहा -“हां जी ; आपने कैसे पहचाना?” वह बोला -“इतनी मीठी बोली हिमाचल की ही हो सकती है।” अब रिक्शे पर बैठे मुझे अमृतसर की गलियों की धूप भी महसूस नहीं हो रही थी ।
मेरा सीना उसकी बातें सुनकर गर्व से चौड़ा हो गया था । हिमाचल की निच्छल मधुर बयार मेरे हृदय में जैसे हिलोरें ले रही थी ।
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विज्ञापन का सच (लघुकथा)
“नेहा तेरे बच्चे इतने बड़े हो गए पता भी नहीं चला”, गीता ने बचपन की सहेली मास्टरनी नेहा से मुखातिब होते हुए कहा। बारह तेरह साल के दो बच्चों जिनके कंधों पर बैग लटके हुए थे और साथ में नेहा खड़ी थी, होर्डिंग पर नीचे बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था “अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाएं “। नेहा ने जवाब दिया -“नहीं यह मेरे बच्चे नहीं हैं।”
“तो फिर ये बच्चे किसके हैं ?”गीता ने फिर सवाल दागा।
नेहा सकपका गई । “ये बच्चे हमारे स्कूल के ही हैं ।”
“तो तुम्हारे बच्चा कहां पढ़ रहे हैं ?”
गीता ने फिर पूछा'” कान्वेंट में “। नेहा की जुबान जैसे लड़खड़ा गई थी। “ओह यार मैंने सोचा ये तुम्हारे बच्चे हैं जो इसी स्कूल में पढ़ रहे हैं ।”गीता ने बात बदलते हुए कहा। होर्डिंग देखकर बच्चे को सरकारी स्कूल में दाखिल करवाने के लिए लाई गीता अपने बच्चे को वापिस ले गई और कान्वेंट स्कूल में दाखिल करवा दिया ।
होर्डिंग पर टंगे विज्ञापन का सच बार-बार उसके मानस पटल पर आ जा रहा था।
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दाल – फुलका ( लघुकथा)
आदत के अनुसार शाम के वक्त मैं रोज पार्क में घूमने निकल जाता हूं । वहां कई लोग मिल जाते हैं । कुछ खेलते हुए बच्चे तो कुछ पढ़ते हुए बच्चे । कई अपने हमउम्र मित्र भी इसी बहाने मिल जाते हैं । कल शाम को जब मैं पार्क में घूम रहा था तो मेरे पड़ोस मैं रहने वाले उमेश बाबू का बेटा पार्क में पढ़ रहा था ।
मैंने पूछ लिया बेटा क्या पढ़ रहे हो? बोला -“अंकल कल मेरा हिंदी का एग्जाम है निबंध याद कर रहा हूं”। मैंने कहा -“बेटा कौन सा निबंध याद कर रहे हो? तो वह बोला-” अंकल भारत में फैला भ्रष्टाचार”। मैंने कहा -“ठीक है बेटा शाबाश याद कर लो “।
घूमते घूमते मैं थोड़ी दूर आगे निकला तो मेरा मित्र सुधीर मिल गया । वह मुझे काफी दिनों बाद यहां मिला था। मैंने पूछ लिया-” सुधीर भाई बड़े दिनों बाद दर्शन हुए आजकल कहां रहते हो?”
तो वह बोला-” भाई आजकल मैं यहां से ट्रांसफर हो गया हूं। मैंने कहा-” तभी आप बड़े दिनों से दिखाई नहीं दिए”।
फिर मैंने पूछ लिया-” आपने खुद ट्रांसफर करवाया है या सरकार ने आपका ट्रांसफर कर दिया ? आप तो सरकार की ही पार्टी के आदमी हो फिर यह ट्रांसफर कैसे ? ”
तब वह बोला -“भाई मैंने अपना ट्रांसफर खुद करवाया है। यहां से लगभग पचास किलोमीटर दूर है मेरा स्टेशन । छोटा सा कस्बा है ।
यहां शहर में जहां मेरी ड्यूटी थी वहां हर हफ्ते कोई न कोई चला रहता था और इन अधिकारियों को या उनके रिश्तेदारों को अटेंड करने में ही मेरा सारा वेतन खर्च हो जाता था । ऊपर से यहां कोई आमदन भी नहीं थी । अब मैं यहां हूं वहां दूरदराज का क्षेत्र है और कोई नहीं आता ।
वहां थोड़े बहुत काम भी चले हुए हैं । इससे मेरा वेतन भी बच जाता है और दाल फुलका भी निकल जाता है ।”
वह एक ही सांस में सब कुछ कह गया था। उधर पार्क में बैठा बच्चा अभी भी निबंध रट रहा था।
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दहेज (लघुकथा)
मैं कई दिनों से उस भिखारी को जो किसी भी एंगल से भिखारी नहीं लगता था परंतु हर हफ्ते दुकान पर भीख मांगने आ जाता था, नोटिस कर रहा था । मुझे उससे चिढ़ होती कि हर हफ्ते आ जाता है मांगने। परंतु अपने संस्कारों के कारण मैं उसे अपने दरवाजे से खाली नहीं भेजता । कुछ सिक्के उसके बर्तन में जरूर डाल ही देता । लगभग दो महीने के बाद मैंने उससे पूछ ही लिया “पूरे शहर में आप भीख मांगते हो और अब तक तो आपने काफी पैसे जोड़ लिए होंगे । इन पैसों का आप क्या करोगे ?”उसने लंबी सांस भरते हुए कहा -“बेटी की शादी “। मेरे पास अब पूछने के लिए कुछ नहीं बचा था।
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हुनर (लघुकथा)
नेता जगत प्रसाद जी गांवों में बड़े मशहूर थे । गांव के बड़े बूढ़े बुजुर्ग लोग तो उन्हें अपने कुनबे का ही व्यक्ति मानते थे । क्योंकि वे उनके परिवार के साथ साथ उनके ढोर डंगरों तक की खबर जो रखते थे।
नेताजी जब भी गांव के दौरे पर निकलते तो कुछ चमचा किस्म के लोग नेताजी अपने साथ रखते ,जो उन्हीं गांवों के होते।
नेताजी गांव में पहुंचने से पहले ही होमवर्क कर लेते । साथ चलते व्यक्ति से जो उसी गांव का होता हर घर की खबर ले लेते ।
यहां तक कि उस परिवार के ढोर डंगरों तक की भी जानकारी ले लेते।
गांव में पहुंचते ही नेताजी जब लोगों को उनके नाम से बुलाते और उनके बहुओं- बेटों- बेटियों के बारे में नाम ले लेकर पूछते ; फिर ढोर- डंगरों की खबर लेते कि काले रंग की भैंस या भूरे रंग की भैंस आजकल दूध दे रही है या नहीं ? बैलों तक की बात बिना पूछे मुखिया से करते तो मुखिया क्या पूरा परिवार नेताजी के इस तरह उनके परिवार के साथ जुड़े होने की बात जानकर अपनी सारी कठिनाइयों को भूलकर नेताजी को सिर आंखों पर बिठा लेते।
नेताजी की जमीन से जुड़े होने की खबर दूर दूर तक जाती और इसी हुनर के बूते वह हर बार चुनाव जीत जाते।
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घर का सुख (लघुकथा)
स्कूल के बगल में आर्मी का ट्रांजिट कैंप होने के कारण आते- जाते फौजी वहां रुकते।
घर से आते फौजी ने स्कूल के बरामदे में अपना पिट्ठू व राइफल एक तरफ टिकाते हुए चढ़ाई के कारण चेहरे पर आया पसीना पौंछा और फिर मास्टर रामदास की ओर मुखातिब होते हुए बोला-
” मास्टरजी तीन-तीन महीने पहले अर्जी लगाने के बाद जब छुट्टी मिलती है तो बिना रिजर्वेशन के तीन-तीन दिन का सफर ट्रेन में खड़े खड़े कर देते हैं ,फिर भी कोई थकान नहीं होती ।
परंतु वापसी में रिजर्वेशन के बावजूद स्टेशन पर पहुंचते-पहुंचते शरीर टूटने लगता है ।” उसके चेहरे पर फिर उभर आईं पसीने की बूंदें मानो उसकी अनुभूति की गवाही दे रही थीं ।
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पाखंड (लघुकथा)
आज सावन का आखिरी सोमवार था । राधिका व्रत पूजन के पश्चात गाय पूजन के लिए रोटी अपने साथ वर्क प्लेस पर ही ले आई थी। उसके आफिस के पास ही एक गौशाला थी । वह अपना सामान ऑफिस में रखकर सीधी गौशाला पहुंच गई । उसने बैग से रोटियां निकालीं और छोटे-छोटे कौर करके गाय के मुंह में देने लगी। तभी उसके कानों में आवाज आई -“बहू कल शाम को मैं भूखी ही रही, क्योंकि तकलीफ ज्यादा हो गई थी और रोटी नहीं बना पाई ।”
यह आवाज उसकी अपनी बूढ़ी सास की थी । जिसके तीन पुत्र तीन बहुएं होने के बावजूद भी घर में अकेली रह रही थी। पिछले एक साल से पैरालाइज से ग्रस्त होते हुए भी घर में खुद रोटी बनाकर खाती थी ।
क्योंकि सभी बेटों बहुओं ने शहरों में कमरे लेकर रहना शुरू कर दिया था।
राधिका ने कानों में गूंजती उस आवाज को अनसुना कर दिया । अपनी मन्नतों की पिटारी खोलते हुए वह गाय के चरण छूने लगी।
तभी फिर आवाज आई -” बहू कभी आप घर आकर मुझसे भी आशीर्वाद ले लेते। मैं तो आपके पति की मां और आपकी सासू मां हूं । आपकी बुजुर्ग हूं और बुजुर्ग तो देवताओं से भी बढ़कर होते हैं ।”
अबकी बार वह बूढ़ी सास की आवाज कानों में गूंजते ही चिढ़ से भर गई।
भीतर ही भीतर बुदबुदाते हुए उसने फिर उस आवाज को अनसुना कर दिया और गाय के चरण छूकर
जल्दी-जल्दीऑफिस की ओर चल दी।
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भ्रष्टाचार (लघुकथा)
मोहन रोज घर से कार्यालय तक का लगभग बीस किलोमीटर का सफर बस द्वारा तय करता था ।
पिछले दो सालों से वह एक ही बस में सफर कर रहा था । यही बस उसे सुबह कार्यालय के लिए शूट भी करती थी।
बस का किराया बीस रुपए था ।
परंतु कंडक्टरों के साथ परिचय होने के कारण और रोज की सवारी होने के कारण वह दस रुपए में काम चला लेता था।
आज जब वह बस में चढ़ा तो कंडक्टर नया था ।
बस कंडक्टर ने मोहन से बीस रुपए मांगे तो मोहन को कुछ अटपटा लगा ।उसने कहा -“भाई साहब मैं रोज दस रुपए में सफर करता हूं। पिछले दो साल से इसी बस में आता जाता हूं।”
कंडक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा-” सर बीस रुपए ही लगेंगे।”
बीस रुपए सुनते ही मोहन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने जेब से बीस रुपए निकालकर कंडक्टर को थमा दिए।
कंडक्टर ने पैसे थैले में डाले और दूसरी टिकटें काटने में लग गया । उसने उसे टिकट नहीं दिया ।
मोहन ने साथ बैठी सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झड़ना शुरू कर दिया।
थोड़ी देर बाद जब कंडक्टर टिकट काटकर वापस आया तो उसने उसे बड़े रौब से कहा-“भाई पैसे तो बीस रुपए ले लिए टिकट भी दे दो ।”
मोहन के चेहरे पर आए हुए गुस्से को भांपते हुए कंडक्टर ने टिकट की जगह दस रुपए मोहन के हाथ पर रख दिए।
मोहन के चेहरे का रंग एकदम बदल गया ।
थोड़ी देर पहले जो साथ वाली सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झाड़ रहा था ,अब उसके भाषण का टॉपिक बदल गया था ।
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शब्दों के घाव (लघुकथा)38
रामेश्वर अपनी दुकान पर बैठा था कि हरमीत दोपहर को उसकी दुकान पर आ धमका।
वह उसका सहपाठी रहा था । लगभग तीस साल पहले दोनों का बचपन एक ही मोहल्ले में गुजरा था और एक ही स्कूल में दोनों पढ़े भी थे ।
समय ने करवट बदली तो दोनों अपनी-अपनी दुनिया में रम गए । रामेश्वर बिजनेस में आ गया और हरमीत नौकरी में चला गया।
जब कभी वह शहर आता तो जरूर रामेश्वर की दुकान पर आता उससे मिलने ।
आज उसने खूब शराब पी रखी थी …।
लग रहा था वह होश में नहीं है। वह आकर रामेश्वर को बोलने लगा- ” यार रामू मैं पुरी मास्टर को ढूंढ रहा हूं जो मुझे कहता था की तू कुछ नहीं बन सकता।
मैं दसवीं पास एयर फोर्स में हूं और साठ हजार रुपए तनख्वाह लेता हूं…. ।
मैं सोचता हूं कि मुझे एक बार पुरी मास्टर मिल तो जाए जो मुझे कहता था कि तू कुछ नहीं बन सकता ।”
यह कहता हुआ वह नशे में लड़खड़ाता हुआ दुकान से बाहर निकल गया…. ।
उसके बाल मन में अंकित मास्टर की वह क्रूर तस्वीर व चुभती हुई बातें तीस सालों बाद भी नहीं निकलीं थीं , मानो शब्दों के वे घाव अभी तक भी भरे नहीं थे।
रामेश्वर के ज़हन में बड़ी देर तक हरमीत के अवचेतन से निकली बातें कौंधती रहीं ।
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बदलता समय [लघुकथा ]
आज नेता जी फिर हमारे गाँव आ रहे थे | दस बर्ष के अंतराल बाद |पहली बार वह तब आये थे जब उनकी जीत हुई थी और इस क्षेत्र से भरपूर वोट मिले थे | दूसरी बार वह हार गये थे | अब तीसरी बार के चुनाव में जीत गये थे और मौका था एक कमरे के उद्घाटन का | यद्यपि यह कमरा पिछली सरकार ने बनवाया था परन्तु उद्घाटन नहीं कर पाई थी | चुनावों के बाद इस उद्घाटन के कार्य को यह नेता जी पूरा कर रहे थे | पिछली बार दस वर्ष पहले जब वह यहाँ आये थे तब बड़े जोर-शोर से उनके लिए और उनकी सरकार के लिए नारे लगे थे | फूलों के हारों से उनका गला सिर तक भर गया था | सलाम बजाने वालों की लंबी कतार लगी थी | लोगों ने उनके आश्वासनों पर खूब तालियाँ बजाई थीं |यह सारा दृश्य अब तक उनके जहां में जिन्दा था | अब की बार भी नेता जी की ऐसी ही अपेक्षा थी | मगर गाड़ी से उतरते ही उनके गले में थोड़े से हार डले , नारेबाजी भी कम ही हुई तो नेता जी एक आदमी के कान में फुसफुसाये,बोले – नारे तो लगाओ | फिर थोड़े से लोगों ने फिर से थोड़े – बहुत नारे लगाये | काफिला रास्ते में चलता हुआ आगे बढ़ रहा था | उद्घाटन वाले कमरे तक पहुंचने के लिए अभी कोई आधा किलो मीटर रास्ता बचा था तभी नेता जी ने देखा – चालीस – पचास युवा रास्ते में बैठे उनका इंतजार कर रहे हैं | ये देखकर नेता जी खुश हुए |सोचा ये सब मेरे स्वागत के लिए बैठे हैं |देखते ही देखते युवाओं ने रास्ता रोक लिया | नेता जी सहम गये | युवाओं की तरफ से विगत दस वर्षों के निरुत्तर प्रश्नों की बौछार नेता जी पर होने लगी | नेताजी के पास इस बौछार का कोई सटीक जबाब नहीं था | वह घबरा गये | बोले , इन्हें रास्ते से हटाओ |पुलिस उनपर टूट पड़ी | उसने युवाओं को तितर – बितर कर दिया | कुछ पल पहले नेता जी ने नारों के लिए खुद कहा था , अब स्वतः ही पूरी घाटी नारेबाजी से गूँज उठी थी ,परन्तु ये नारे जिन्दावाद के नहीं अपितु मुर्दावाद के थे | नेता जी बच् – बचाकर सुरक्षित जगह पहुँचाए गये | नेता जी को लगा समय बदल गया है | अब युवाओं को झूठे आश्वासनों से बरगलाने का समय नहीं रहा है ||
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अक्स के रूप (लघुकथा)
कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षों में मैं बहुत मेहनत करता। बच्चों के साथ मेरे बहुत ही आत्मीय संबंध थे। जरूरतमंद बच्चों की मैं हर संभव सहायता करता । धीरे-धीरे नौकरी बढ़ती गई और उम्र भी । अब न तो पहले जैसा जोश रहा न ही बच्चों के साथ वैसी आत्मीयता।
सब कुछ एक सामान्य कार्य होता चला गया। फिर सेवानिवृत्ति भी हो गई ।
एक दिन अचानक बीमार हो गया तो मुझे अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। शाम के समय एक व्यक्ति मेरे पास आया, मेरे पैर छुए और बताया कि मैं आपका विद्यार्थी रहा हूं ।
फिर उसने अपना पूरा परिचय दिया । मैंने भी घर में सब के बारे में कुशलक्षेम पूछा । वह इसी अस्पताल में कार्यरत था ।
यह मेरे कार्यकाल के प्रारंभिक वर्षों का विद्यार्थी था ।वह रोज मेरा हाल-चाल पूछने आता और मेरे लिए अपने घर से कुछ न कुछ अवश्य ले आता ।
कभी फल, कभी जूस, कभी दलिया। एक लड़का और मेरे पास आता । वह भी इसी अस्पताल का कर्मचारी था ।उसने भी बताया कि वह भी मेरा विद्यार्थी रहा है। यह मेरे अध्यापन के अंतिम वर्षों का विद्यार्थी था ।
वह भी कभी कभार मेरे पास आता मेरा हाल-चाल पूछता और चला जाता।
मैंने पाया उसके व्यवहार में वह आत्मीयता व प्रेम की गर्माहट नहीं थी जो दूसरे में थी ।महज़ औपचारिकता थी।
मैं अपने अध्यापन का अक्स इन दोनों विद्यार्थियों के व्यवहार में देख रहा था ।
वर्षों बाद आज मेरे अध्यापन का प्रतिफल दोनों विद्यार्थियों के रूप में मेरे समक्ष था।
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अपने-अपने सुख(लघुकथा )
जब सर्दी आती है बारिश और बर्फ का दौर शुरू होता है, उससे पहले ही मेरे पड़ोसी सुक्खु का पूरा परिवार नीचे मैदानी इलाकों की ओर चल देता है । क्योंकि बर्फ के मौसम में यहां उसकी दिहाड़ी नहीं लगती सारा परिवार बेरोजगार हो जाता है। उसका कच्चा टपरू(घर) चूने लगता है और अंदर उठना बैठना सोना मुश्किल हो जाता है ।
प्लास्टिक के जूते में बर्फ घुस आती है ।बिना मौजों के जूते में काम नहीं होता। गर्म कपड़े कम पड़ जाते हैं और भूखों मरने की नौबत आ जाती है।
इसलिए उसे बर्फ का गिरना आफत लगता है। इसी कारण वह इस बर्फ के मौसम को जरा भी पसंद नहीं करता और उससे पिंड छुड़ाकर नीचे मैदानों की ओर भाग जाता है।
वहां उसकी रोजी-रोटी चलती रहती है और उसके कटे-फटे जूते में बर्फ के घुसने का डर भी नहीं होता , तथा उसके थोड़े से गर्म कपड़ों से काम चल जाता है ।
दूसरी तरफ मेरे एक मित्र हैं । मैदानी इलाके में रहते हैं। बहुत बड़ा कारोबार है वह गर्म मौजे और बड़े-बड़े गर्म जूते व जैकेट पहन कर बर्फ में ठखेलियों के शौकीन हैं।
बर्फ का गिरना उन्हें बहुत अच्छा लगता है । गिरती हुई बर्फ का वीडियो बनाना उनका शौक है ।
अतः दिसंबर जनवरी में हमारे यहां जब भी बारिश या बर्फ का माहौल बनता है मुझे उन्हें सूचित करना पड़ता है। यूं भी वह खुद फोन पर बर्फ की सूचना लेते रहते हैं।
बर्फ गिरते ही वह यहां पहुंच जाते हैं अपने लाव लश्कर के साथ और होटल में रहकर बर्फ का पूरा लुत्फ उठाते हैं ।
बर्फ का गिरना उनके लिए नियामत है ।जबकि यही बर्फ का गिरना सुक्खु के लिए आफत होती है। सचमुच इस संसार में सबके अपने-अपने सुख हैं।
प्रभाव ( लघुकथा )42
जब भी रोहित की मां को घर का काम करना होता तो वह नन्हे रोहित को बिस्तर पर बैठकर टी वी लगा देती और अपना घर का काम निपटा लेती । कार्टून,रेसलिंग व फिल्में वह बड़ी गौर से देखता ।
रोहित टी वी को देखते हुए बड़ा हो रहा था। बेटे को संभालने के लिए मां को टी वी एक अच्छा माध्यम मिल गया था । इसी तरह रोहित पांच वर्ष का हो गया ।
अब वह खुद ही टी वी लगाकर उसके सामने बैठ जाता था। एक दिन रोहित टी वी देख रहा था और सोफे पर उछल रहा था ।
फिल्म में हीरो विलेन को पटक-पट कर पीट रहा था ।जैसी ही दनादन गोलियां चलतीं वह और खुश होता और उछलता। उछलते हुए वह साथ बैठे पापा को देखकर बोला-” मैं भी बड़ा होकर मनु शीरू और तनु को गोलियों से उड़ा दूंगा ।”
पापा बोले- ” क्यों बेटे?” तब वह बाल सुलभ मासूमियत से बोला-” पापा वे मुझे आपका नाम ले लेकर बार-बार चढ़ाते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आता है। मैं उन्हें ऐसे ही उड़ा दूंगा ।”
पापा ने कहा-” नहीं बेटे ऐसा नहीं करते । पुलिस पकड़ लेती है और जेल में डाल देती है।” तब वह बोला -“यह तो इतनी गोलियां चलाते हैं पुलिस इन्हें क्यों नहीं पकड़ती?”
बेटे की यह बात सुनकर वह सुन्न हो गया। उसे यह उम्मीद नहीं थी कि घर में रखा यह उपकरण उसकी अगली पीढ़ी की मानसिकता को इस तरह अपने प्रभाव में ले लेगा ।
ताना बन गया प्रेरणा (लघुकथा)43
नवमी की कक्षा का गणित का पीरियड था ।सामने ब्लैक बोर्ड पर टीचर ने सवाल लिखा और जगतार को खड़ा करके हल करने को कहा-“जगतार आओ इस सवाल को हल करो।”
जगतार पढ़ने में कमजोर था । वह उठा और ब्लैक बोर्ड पर सवाल हल करने लगा। उसने दो जमा दो पांच लिख दिए। बीच से बच्चे बोल उठे -“सर इसने दो जमा दो पांच लिख दिए हैं।”
फिर सब बच्चे जोर से हंस पड़े। टीचर के मुंह से एकदम निकल गया -“कोई बात नहीं इसने भी बकरे ही काटने हैं लिखने दो दो जमा दो पांच।”
सभी बच्चे खिलखिलाकर जोर से हंस पड़े। टीचर ने उसे बैठने के लिए कहा और दूसरे बच्चे को ब्लैक बोर्ड पर बुला लिया।
टीचर की बात सीसे की तरह जगतार को अंदर तक चीरती चली गई । चूंकि वह एक कसाई का बेटा था ।इसी समय उस ने प्रण कर लिया-” मैं इन्हें पढ़ कर दिखाऊंगा।”
और फिर जगतार पढ़ाई में इस तरह रमा कि दसवीं में उसने प्रदेश के मेधावी छात्रों में अपनी जगह बना ली। वह मेरिट में पास हो गया। मेरिट के आधार पर उसे एम बी बी एस में सीट मिल गई और वह डॉक्टर बन गया।
डॉक्टर बनते ही वह गणित के टीचर इकबाल के पास पहुंच गया । पैर छुए तो टीचर ने कहा -“मैंने आपको पहचाना नहीं?”
तब वह बोला – “सर मैं आपका स्टूडेंट वही करतार कसाई का बेटा जगतार जिसने दो जमा दो पांच लिखे थे ….।”
वह बोलकर चुप हो गया ।
फिर बोला-” सर मैं आपकी प्रेरणा से डॉक्टर बन गया हूं….।”
इकबाल से कुछ बोलते नहीं बन रहा था । उसे अपना कहा याद आ गया था । उसे लगा उसकी जुबान से फिसले शब्दों के तीखे तीरों ने आज उसे ही बिंध दिया है । वह इतना ही बोल पाया-” खूब तरक्की करो बेटा।”
बदलते दृश्य (लघुकथा)44
समय कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता ।
दोनों भाई जो छोटे-छोटे कभी साथ साथ खेला पढ़ा करते थे बड़े हुए और जुदा हो गए। पता ही नहीं चला आज दिवाली का त्यौहार था ।
दोनों त्यौहार मनाने अपने परिवार के साथ अपने नौकरी वाले शहरों से एक बार फिर घर में इकट्ठा हुए ।
अबकी बार की दिवाली में मां-बापू साथ नहीं थे ।
दोनों भाई अपने घर बरसों बाद अपने अपने परिवार सहित इक्कट्ठे दिवाली मना रहे थे ।
घर में मिठाइयां व पकवान मेज पर सज गए । बातों ही बातों दोनों में मां बापू का जिक्र चल पड़ा ।
और फिर ….,
मां का उस दिवाली को मिठाई की जगह मुट्ठी भर चीनी देना और बापू का त्यौहार के दिन गुमसुम हो जाना क्योंकि ठेकेदार ने उस दिन पैसे नहीं दिए थे का जिक्र छिड़ा तो दोनों भाइयों की आंखों में बचपन का वह दृश्य उभर आया और आंसुओं के दरिया बह निकले। बात कुछ यूं थी कि दिवाली का त्यौहार था और बापू को ठेकेदार ने मजदूरी नहीं दी थी ।
वह खाली हाथ ही शाम को घर लौट आया था। मां ने देखा बापू का बैग खाली था । मां ने खाने के बाद मिठाई की जगह दोनों बेटों की मुट्ठियां चीनी से भर दीं तो बच्चे चीनी खाकर ही खुश हो गए ।चीनी की मिठास से उनका तन मन मीठा हो गया और दोनों मां से लिपट कर सो गए ।
आज इस जिक्र के साथ ही दोनों भाइयों की आंखों से एक बार फिर आंसुओं के दरिया बह निकले थे।
दोनों की पत्नियां व बच्चे देख रहे थे । उन्हें उन दोनों की बात समझ नहीं आई थी। इससे पहले की उनकी पत्नियां व बच्चे उनकी बात को समझते दोनों ने अतीत की इस स्मृति को झटक कर अपनी आंखें पोंछ लीं । अब दृश्य बदल गया था अब हंसता बतियाता पूरा परिवार डायनिंग टेबल पर अपने अपने खाने में व्यस्त हो गया था ।
अपने अपने स्वार्थ. ( लघुकथा)45
अपनी भेड़ों की रखवाली के लिए गड़रिये ने एक कुत्ता पाल रखा था नाम रखा था शेरू।
इतना हट्टा कट्टा था कि सचमुच शेर जैसा लगता स्वामीभक्त शेरू अपने मालिक की भेड़ों की रखवाली बड़ी ईमानदारी से करता ।
वह दिन भर गड़रिये के साथ-साथ जंगल में भेड़ों के झुंड की रखवाली करता और भेड़ें जब शाम को वापस आ जातीं तो फिर पूरी रात जाग जाग कर बाड़े के इर्द-गिर्द घूमता हुआ भौंकता रहता। ताकि कोई जंगली जानवर या चोर आदि बाड़े की ओर न आ सके।
इस स्वामीभक्ति के बदले उसे भरपेट रोटी मिल जाती ।
पहाड़ों पर सर्दियां आते ही गडरिया जब अपनी भेड़ें लेकर मैदानी क्षेत्र की ओर चला जाता तब शेरू भी उसके साथ-साथ चला जाता ।
इस बार जब वह जा रहा था तो रास्ते में किसी गाड़ी वाले ने शेरू को टक्कर मार दी । शेरू लहू लुहान होकर सड़क पर गिर पड़ा। गड़रिये ने उसे उठाया और किनारे पर रखा।
देखा तो शेरू जख्मों के कारण चल पाने में असमर्थ था ।
अब गड़रिया उसे उठाकर अपने साथ नहीं ले जा सकता था। क्योंकि उसके पास सोने व खाने-पीने के समान का भारी बोझ पहले ही था । और न ही वह उसके लिए भेड़ों को वहां रोके रख सकता था ।
यह उसकी अपनी मजबूरी थी ।अत: वह शेरू को वहीं कराहता हुआ छोड़कर चल दिया। शाम को एक किसान ने वह सुंदर हट्टा कट्टा घायल कुत्ता देखा तो स्वार्थवश उसे उठाकर अपने घर ले आया ताकि वह स्वस्थ होकर उसके घर व खेतों की रखवाली कर सके।
उस किसान ने कुछ दिनों तक उसकी मरहम पट्टी की तो वह ठीक हो गया। अब शेरू पेट के लिए दो रोटियों के बदले उस किसान के यहां भौंक भौंकर अपनी स्वामीभक्ति प्रदर्शित करता है।
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भूख का धर्म (लघुकथा)
चौराहे पर मेरे सामने क्रमशः आठ – दस वर्ष के दो लड़के अपनी हरी चादर पसारे खड़े हो गए ।
किसी पीर बाबा का नाम लेकर फैलाई चादर को बार-बार आगे करने लगे ।
मैंने जेब से दो सिक्के निकाले और चादर में डाल दिए ।
इन्हें पैसे देते देखकर एक छोटी सी लड़की न जाने कहां से मेरे सामने आ गई।
उसने हाथ में दुर्गा माता की छोटी सी फोटो थाली में सजाई थी ।वह भी उसमें कुछ डालने की जिद करने लगी। मैंने एक सिक्का जेब से निकाल कर उसकी थाली में रख दिया। बच्चों के चेहरों पर खुशी तिर आई थी ।
फिर वे दूसरे लोगों से मांगने में व्यस्त हो गए। मुझे पैसे देते देख बगल में खड़ा व्यक्ति बोला -“भाई साहब यह तीनों बच्चे बहन भाई हैं ,इनका बापू अपाहिज है और मां अंधी । मेरे मोहल्ले के बगल में नाले पर बने पुल के नीचे झुग्गी में कई सालों से रह रहे हैं। पता नहीं किस धर्म के हैं ।भाई मुसलमान तो बहन हिंदू बनी हुई है।”
उसकी बात सुनकर मेरे मुंह से अचानक निकल गया-” भाई साहब भूख कोई धर्म नहीं होता ।”
मेरा उत्तर सुनकर उसने कोई जवाब नहीं दिया।
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युग- सत्य (लघुकथा )
बंदर बस्ती में आया तो कुत्ता बंदर को देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा । बंदर ने देखा और बोला -“अबे क्यों भौंक रहा है ? तुम्हारे मालिक ने खेतों में फसल बीजना छोड़ दिया है तभी तो हमें बस्तियों में आना पड़ रहा है ।
जब तुम्हारा मालिक फसल बीजता था तब हमें भी तो वहां से कुछ खाने को मिल ही जाता था , और तुम्हें भी तो खेतों की रखवाली के बदले दाल – फुलका मिल जाता था।
अब तुम्हारे मालिक ने खेत बीजना ही छोड़ दिया तो तू भी तो उसके लिए अब बेकार हो गया है।
इसलिए अब वह तुझे भी दाल -फुलका नहीं खिलाना चाहता।
क्योंकि उसे अब खेतों की रखवाली के लिए तो तेरी जरूरत ही नहीं रही।
अब तुझे भी तो उसने घर से निकाल दिया है। तेरा भी तो दाल फुलका बंद हो गया है ।”
दोनों की बातचीत सुनने के लिए और कुत्ते इकट्ठे हो गए थे। कुत्तों का झुंड बंदर की बातें ध्यान से सुन रहा था। बंदर ने आगे कहा-” वह जमाना गया जब हमारे झुंड के लिए एक कुत्ता ही काफी होता था ।अब तो तुम्हारे झुंड के लिए मुझ जैसा एक बंदर ही काफी है।”
कुत्तों ने हां में गर्दन हिलाई।
बंदर ने कहा-” चलो आज के बाद हम दोस्त बन जाते हैं।” कुत्तों ने दोस्ती की हामी भरते हुए अपनी-अपनी पूंछ हिलाई। कुत्ते बंदर को सुनकर चले गए। बंदर छलांगें मारता हुआ पूरी बस्ती में उधम मचाता रहा। अब दोनों की दुश्मनी दोस्ती में जो बदल गई थी।
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खेल-खेल में
एक पहाड़ी मंदिर की यात्रा के दौरान हम रास्ते में विश्राम हुआ जलपान के लिए जलपान गिरी के प्रांगण में रुके और खा पीकर आगे मंजिल की ओर बढ़ जाते यात्रियों द्वारा फेंकी बच्ची कोच्चि खाद्य वस्तुओं को वहां मौजूद वानर झुंड भी खा पी रहा था तभी मेरी बेटी ने बेटे को संबोधित करते हुए कहा देखो बंदर डस्टबिन से मिनरल वाटर की बोतल निकाल कर बच्चे पानी को कैसे पी रहा है बिल्कुल आदमी की तरह इस सब ने उसकी तरफ देखा तभी बंदर ने बोतल के सारे बच्चे पानी को पीकर बोतल को डस्टबिन के बाहर फेंक दिया तब मैं बच्चों को समझाते हुए कहा देखो आदमी और बंदर जानी जानवर में यही बुनियादी फर्क है आदमी ने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए बोतल डस्टबिन में फेंकी थी ताकि गंदगी ना पहले परंतु बंदर ने वही बोतल निकाल कर बच्चा पानी पिया और बोतल बाहर फेंक दी इस विवेक हैं बेचारे को क्या पता की बोतल बाहर फेंकने से गंदगी फैलेगी यह कहकर मैंने अपनी बात समाप्त की ही थी कि तभी हमारे सामने की बेंच पर बैठे जोड़ने चिप्स के पैकेट को खाली कर डस्टबिन में डालने के बजाय भारी फेंक दिया यह देख बेटा झट से बोल पड़ा पापा इन्होंने भी लिफाफा बाहर फेंका है यह कौन हुए आदमी या कीमैंने बेटे को धीरे बोलने के लिए इशारा किया तथा फिर समझती हो कहां बेटा जो आदमी आदमी होकर भी पशुता भरे कार्य करें उसे पशु ही समझना चाहिए शुभम फिर बोल पड़ा फिर तो यह बंदर हुए ना मैंने उसे डांटा और ऐसे शब्द ना खाने के लिए कहा दोनों बच्चे उठकर दूरबींच पर जा बैठे और उनका खेल शुरू हो गया अब आते-जाते जो लोग पानी की खाली बोतल या लिफाफे इत्यादि 10 मिनट में डाल देते बच्चे उन्हें आदमियों में जिन लेते और जो अगल-बगल फेंक देते उन्हें बंदरों में जिन लेते विश्राम के 1 घंटे में बच्चों ने अपने इस मोड़ खेल-खेल में कई आदमी और कई बंदर जिन लिए थे।
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नेवर गिव अप(लघुकथा)
रमन पिछले तीन साल से प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर
रहा था ।परंतु हर बार वह असफल हो जाता।।
हताशा में एक दिन वह रेल की पटरी पर जाकर खड़ा हो गया। आज उसने दृढ़ निश्चय कर लिया था कि अब वह मुड़कर घर जाकर अपना मुंह नहीं दिखाएगा।
अभी ट्रेन आने में समय था। उसका मन अचानक अपने गांव के स्कूल मैं पहुंच गया
जिसके गेट पर लिखा रहता था “नेवर गिव अप ।”
जब वह छोटी क्लासों में था तब उसे इसका अर्थ समझ नहीं आता था । जब वह बड़ी क्लास में पहुंचा तो एक दिन उसने गुरु जी से पूछ ही लिया -“गुरुजी नेवर गिव अप” जो लिखा है गेट पर , इसका क्या अर्थ होता है ?”
तब गुरुजी ने उसे समझाते हुए कहा-“बेटे इसका अर्थ होता है कभी हार नहीं मानना।
जीवन में बड़ी से बड़ी कठिनाई आ जाए परंतु व्यक्ति को हार नहीं माननी चाहिए ।
अगर परमात्मा एक दरवाजा बंद करता है तो दस दरवाजे और खोल देता है ।”
गुरु जी की कही हुई बात उसके बालमन में अंकित हो गई थी।
आज गुरु जी की कही वही बात उसके ज़हन में फिर कौंधी । उसे लगा जैसे गुरु जी ने आज फिर उसे वही बात उसके कान में आकर कही हो।
सामने से ट्रेन आई वह पटरी से हट गया ।
ट्रेन गुजर गई । ट्रेन के गुजरने के बाद वह नई ऊर्जा के साथ वापस घर आ गया।
उसके भीतर से “नेवर गिव अप”की तरंगे हिलोरें ले रही थीं।
वह अपने आप से कह रहा था एक न एक दिन वह जरूर सफल हो जाएगा।
50
स्वार्थ बनाम विचारधारा (लघुकथा)
“साथी यह क्या ?
अपना कुनबा छोड़कर दूसरा पकड़ लिया।”
एक दोस्त ने दूसरे दोस्त से कहा।
“साथी टिकट का चक्कर है।
शायद मुझे यहां टिकट मिल जाए…।”
दूसरे दोस्त ने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया।
“और विचारधारा साथी?”
पहले दोस्त ने फिर प्रश्न किया।
“अब राजनीति में विचारधारा रही कहां है?
स्वार्थ है स्वार्थ ;
निजी स्वार्थ के सामने यहां सभी पलटू राम हैं इनमें एक नाम मेरा भी जोड़ लो ।”
और वह जवाब देते हुए हंस दिया… ।
अशोक दर्द 09-03-2024
51
मुखौटा (लघुकथा)
“आप दलित विमर्श पर बहुत अच्छा बोल लेते हो
सर ।”
पत्र वाचन के बाद दलित विमर्श विषय पर उसके कॉलेज में आए रिसोर्स पर्सन डॉक्टर तिवारी से अनुभव ने प्रश्न किया।
“जी शुक्रिया।
मैंने दलित विमर्श पर वर्षों तक शोध किया है।
मेरी पी. एच. डी. इसी विषय पर है ।”
डाॅ. तिवारी ने जवाब दिया।
“क्या कभी आपने दलित जीवन को जिया भी है?”
अनुभव ने फिर प्रश्न किया।
अब प्रोफेसर साहब के पास उसके इस प्रश्न का शायद
कोई जवाब नहीं था…।
वह प्रश्न को अनसुना कर आगे बढ़ गए।
52
सीख…. (लघुकथा )
बाप बेटा चोरी करने निकले तो बापू ने अपने बेटे को पहाड़ के टीले पर स्थित गांव के एक घर की ओर इशारा करते हुए कहा -“वह जो टीले पर दीया जलते हुए घर दिख रहा है न ,आज हम इसी घर में चलेंगे चोरी करने ।
मैं यहां पहले नौ बार चोरी कर चुका हूं।
अब दसवीं बार तू भी मेरे साथ है।” बापू ने जैसे अपनी बहादुरी प्रदर्शित करते हुए बेटे से कहा ।
तब बेटा बोला- “बापू नौ बार इस घर को लूटने के बाद भी इस घर में दीया जल रहा है ?
इतना होने के बावजूद भी यह घर आबाद है।
परंतु हमारे घर में तो इतनी चोरियों का माल लाने के बाद भीअंधेरा ही है ।
हमारे घर में तो दिया जलाने तक का तेल नहीं है।”
फिर वह बोला -“बापू आज के बाद हम चोरी नहीं करेंगे ।
हम भी मेहनत के दीए से अपने घर को रोशन करेंगे।”
बेटे की बात ने बापू का मन बदल दिया और दोनों बाप बेटा वहीं से वापस घर आ गए।
****अशोक दर्द
अशोक दर्द डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
अशोक दर्द
डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश
**** अशोक दर्द
प्रवास कुटीर गाँव व डा. बनीखेत
तह. डलहौज़ी जिला चम्बा [हि.प्र.]
पिन -176303