लगी आग नफ़रत की ऐसी जहां में
मैं जब भी पुराना मकान देखता हूं!
थोड़ी- बहुत ख़ुद में जान देखता हूं!
लड़ाई वजूद की वजूद पे है आई,
ख़ुदा का भी ये इम्तिहान देखता हूं!
उजड़ गया आपस के झगड़े में घर,
गली कूचे नया अब मकान देखता हूं!
तल्ख़ लहजे ने तोड़ी थी रिश्तों की डोर,
दीवारें आंगन के दर’मियान देखता हूं!
लगी आग नफ़रत की ऐसी जहां में,
हुआ हर शख़्स है परेशान देखता हूं!
ज़ख्म गहरा था भर गया वक़्त का,
सरे-पेशानी मेरे है निशान देखता हूं!
किसी सूरत ज़मीर का सौदा नहीं किया,
मेरे इमां से रौशन मेरा जहान देखता हूं!