लग्न वाला माह
देहरी पर सिर टिकाए, सोचतीं माँ और बेटी,
इस बरस तो लग्न वाला माह आकर जा चुका है।
उँगलियों के पोर पर माँ नाम सबके गिन गईं है।
गाँव से इस वर्ष कितनी बेटियाँ रुखसत हुईं हैं।
ब्याह दी मिश्रा ने बेटी मांगलिकता दोष वाली,
और पंडित ने अठारह में ही बेटी ब्याह डाली।
ढूँढते वर, पूत के पैरों में छाला आ चुका है।
इस बरस तो लग्न वाला माह आकर जा चुका है।
बावली बेटी सभी से प्रेम का परिणय छुपाए,
राख लेना इस बरस भी, शिव गजानन को मनाए।
आस है, अबके बरस “वो” नौकरी पाकर रहेगा।
हाथ “उसका” माँगने का तब कहीं अवसर मिलेगा।
हे भवानी! वर वही दे, जो हृदय को भा चुका है।
इस बरस तो लग्न वाला माह आकर जा चुका है।
शिव, गजानन और गौरी क्या करेंगे कौन जाने !
प्रार्थना तो मुखर माँ की, मौन लेकिन मौन जाने!
फिर नए फागुन किसी वर की तलाशी चल पड़ेगी।
कौन जाने वर मिले या, नौकरी पहले मिलेगी !
किस नयन बरसे न जाने, मेघ मन में छा चुका है।
इस बरस तो लग्न वाला माह आकर जा चुका है।
©शिवा अवस्थी