लकड़ी में लड़की / (नवगीत)
आदिवासी
एक कन्या
लिए गठरी
लकड़ियों की,
जा रही है ।
मुग्ध मन है,
क्षीण तन है,
जाने कैसी ?
ये लगन है ।
कोस भर ये
चल चुकी है,
ये प्रभाती
शाम जैसी
ढल चुकी है ।
तृषा-क्षुब्धा,
क्षुधा-दग्धा ।
लिए गठरी
लकड़ियों की
गीत श्रम के
गा रही है ।
आँख में
विश्वास लेकर
पाँव धरती ।
हाथ से
लकड़ी पकड़के
आह भरती ।
श्याम तन है,
गौर मन है ।
धूप चढ़ती
पर,मगन है ।
दिन भरे में
बेच देगी
लकड़ियों को,
आत्मसुख ये
पा रही है ।
ढुलक माथे
स्वेद बहता ।
और मन में
खेद रहता ।
लकड़ियों में
खो चुकी है ।
उम्र को भी
ढो चुकी है।
गर्मियाँ हों,
सर्दियाँ हों
याकि हो
बारिस झमाझम ।
किंतु गठरी
लिए सिर पर
लकड़ियाँ ये
ला रही है ।
आदिवासी
एक कन्या
लिए गठरी
लकड़ियों की
आ रही है ।
०००
— ईश्वर दयाल गोस्वामी
छिरारी,(रहली),सागर
मध्यप्रदेश ।