*लंक-लचीली लोभती रहे*
लंक-लचीली लोभती रहे
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लंक-लचीली लोभती रहे,
आँख-नशीली बोलती रहे।
जान-हथेली आन है टिकी,
नैन – कटोरे नोचती रहे।
शाम-सुहानी,मोहिनी अदा,
शाम – सवेरे मोहती रहे।
राह खड़ी यूँ ताकती सदा,
नार – हठीली रोकती रहे।
बात-बताए काम की सदा,
सुनी – सुनाई झोंकती रहे।
रात – बिताई जागती हुए,
बैठ – अकेली सोचती रहे।
नींद में मनसीरत रुकी नहीं,
लाल-लहू सी खोलती रहे।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)