लंकापति रावण बहुत था ज्ञानी
लंकापति रावण बहुत था ज्ञानी
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लंकापति रावण बहुत था ज्ञानी,
चारों वेद थे उसको याद जुबानी।
शक्तिशाली नृप जग में कहलाया,
शक्ति में अंधा बन बैठा अभिमानी।
शिव की भक्ति करता लंका नरेश,
की नही कभी किसी संग बेईमानी।
स्वर्ण रजित सुन्दर महल बनवाया,
सोने की नगरी का नहीं कोई सानी।
तेजस्वी,पराक्रमी, प्रतापी,रूपवान,
पाप,अधर्म,अनीति बनाया अज्ञानी।
सीता का धूर्तता से हरण कर लाया,
जीवन मे यही कर बैठा वो नादानी।
पराई स्त्री को छुआ तक नही था,
नही पंहुचाई कोई शारीरिक हानि।
हठधर्मिता के कारण ही दैत्येन्द्र ने,
स्वर्ण नगरी लंका पड़ गई हरानी।
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम ने हराया,
अहंकार वशीभूत पड़ी मात खानी।
पुतला उनका ही है जलता आया,
बहुत रावण हैं जग में करें शैतानी।
हर जन मन में दशानन अब बसता,
राम समरूप नही,न सीता महारानी।
इंसान लगे आज रावण से बदत्तर,
धूर्त,अधर्मी,करते पग पग बेईमानी।
मनसीरत कहे आज कोई राम नहीं,
रावण को बदनाम करेते महाज्ञानी।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)