रफ़्ता रफ़्ता हाथों से किनारा गया
दस्तो सहरा में भी दिन गुजारा गया
दर्द सीने में ऐसे उतारा गया
शौके गौहर में हम ना जमी के रहे
रफ़्ता रफ़्ता हाथों से किनारा गया
स्याह रातें बची खो गया चाँद भी
पूछते मुझसे हो क्या हमारा गया
करके नाशूर ज़ख्मों को कहते रहे
सिद्दतों से मुझे है निखारा गया
किन ख्यालों में रहा डूबा मैं क्या ख़बर
‘अश्क़’ मुझको कभी जो पुकारा गया
– ‘अश्क़’