रौशनी का गुलाम
कहते हैं कोई रहे न रहे,
लेकिन हमारा ‘साया’,
तो हमेशा ही हमारे,
साथ रहा करता है…
मैंने देखा है…वाकई!!!
ये मेरे साथ बनता है,
मै चलता हूँ तो चलता है,
मै रुकता हूँ तो रुकता है…
लेकिन हर रोज शाम तक,
ये मुझसे बड़ा हो जाता है,
इतना!!!कि मेरी आंखों से,
बहुत दूर चला जाता है…
वो मेरे कद का ‘साया’,
मुझसे ही शुरू होकर,
मेरी ही ज़द से बाहर,
हर रोज़ चला जाता है…
फिर रात की आमद होते ही,
ये मुझसे ही मुकर जाता है,
लाख ढूँढने पर भी वो,
कहीं नज़र नहीं आता है…
बहुत सोचा तब ये जाना,
कि इसका तो एक मुक़ाम है!!!
ये किसी का नहीं है,
ये तो रौशनी का गुलाम है…
मेरा तो भरम है कि,
ये मेरा साझेदार है,
पर हकीकत में उसे तो,
बस ‘उजालों’ से प्यार है..!!!!
©विवेक’वारिद’*